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रविवार, नवंबर 01, 2020

कल का मुन्ना, आज का लेखक

भोर होते ही जाग कर घर का काम किया, भेड़ बकरियों और गाय को खिलाया पिलाया, दुध निकाल के गर्म किया, दही मथकर मख्खन और छाछ अलग की और घर के काम तो कभी पूरे नहीं होते।
रात का बचा हुआ खाना खा कर रवाना हो, तब तक तो दिनकर सर चढ गये, भरी दोपहरी हो गई जेष्ठ माह की। तपती धूप में, लूं के थपेड़े और बरसती आग में पति-पत्नी दोनों बढ़ रहे थे, अपने एक वर्ष के बच्चे को कभी मां गोद में उठा रही थी तो कभी, पिता कन्धे पर बिठा रहे थे, क्योंकि आठ कोस जाकर दिन ढलने से पहले वापस जो आना था।
नब्बे के दशक में मारवाड़ के गांवों में बसों की आवाजाही कम ही होती थी, अच्छी सड़कें भी अटल सरकार के बाद बनने लगी थी।
सुखे होंठों ने पानी की प्याली को आशावादी दृष्टि से देखा तो, एक घुंट पानी पेंदे में हिल रहा था।वो पानी कप में डालकर बच्चे को पिलाया और फिर से रफ्तार बढ़ाई शहर की ओर।
चलते चलते एक घर के पास पहुंचे और पानी मांगा, आंगन  में खड़ी घर की मालकिन ने अंदर छाया में आ जाने का निमंत्रण दिया।
पानी पिलाया और बकरी का दूध निकाल कर लाई, चाय की भगोली चुल्हे पर रखीं ,अब पूछने लगी- कौन गांव से आ रहे हैं, आगे कहां तक जा रहें हैं?
मारवाड़ का तो रीति रिवाज है पहले चाय पानी, फिर खैर ख़बर।
तब मां अपने बच्चे के सिर पर हाथ घुमाते हुए कहने लगी- मुन्ने का तबीयत काफी दिनों से खराब चल रहा हैं।
हमने सोचा ठीक हो जाएगा लेकिन नहीं हुआ, किसी ने बताया शहर में दिखा लाओ तो, आज सुबह निकलने वालें थे,पर निकलते निकलते देर हो गई।
घर भी पहुंचना है शाम होने तक, घर पर कोई नहीं है।
तब वो औरत बीच में ही बोल उठी- तो और बच्चे कहां हैं?
उन्हें तो घर पर छोड़ कर आये होंगे?
मां कहने लगी- नहीं बहन !
मुन्ने का एक तीन साल का बड़ा भाई था, भगवान ने उसे वापस बुला लिया।
पांच साल बाद यह हुआ हैं अब यह भी ठीक नहीं रहता हैं।
इसलिए दर दर भटक रहे हैं।
अब तक चाय तैयार हो गई थी, चाय पीकर पानी की प्याली भरी और चलने लगें।
घर की मालकिन बाहर तक छोड़ने आई और विदा करते हुए बोली- आते समय भी चाय पीकर जाना, रात हो जाये तो यहां आकर रुकना।
छंद मिनटों के आराम और चाय ने मानों, तन मन में जोश भर दिया हो, उस औरत की प्रसंशा करते हुए , कब शहर में प्रवेश कर गये पता ही नहीं चला।
पुछताछ करते हुए डॉक्टर से जा मिले, सुई लगाई, कुछ दवाइयां दी और पांच दिन बाद वापस आने को कहा।
दवाखाने से निकले तब तक सुर्य भगवान ढल चुके थे।
दौड़ते भागते उसी घर के बाहर पहुंचें, जहां दिन में पानी पिया था।
रात वहीं रुक गये, घर पर जेठानी ने मवेशियों की सार संभाल की होगी, दिन को बोल कर तों आये थे।
सुबह जल्दी उठकर चलें तब जाकर सवा पहर दिन चढ़ने तक घर पहुंचे।
यही हाल ठीक उसके पांच दिन बाद भी हुआ होगा क्योंकि, डॉक्टर ने वापस जो आने के लिए कहा था।
एक वर्ष तक यही क्रम चल रहा था, झाड़ फूंक, देवी देवताओं को भी मनाया, व्रत उपवास और परिक्रमा भी की, पर मुन्ना ठीक नहीं हो रहा था।
एक बार अपने पहले पुत्र को खोने के बाद मुन्ने की मां अपने मायके गई हुई थी और वहां पड़ोस में ही एक प्रतिष्ठित संत आये हुए थे, जो वचन सिद्ध महात्मा थे।
उन्होंने आशीर्वाद दिया था कि हे पुत्री!
आना जाना संसार की रीति हैं, जाने वालों के पीछे शोक व्यक्त करने का भी एक समय होता है, रोने का वक्त गया, अब खुशियां मनाओं, भगवान की कृपा से तेरे नसीब में पांच पुत्रों सुख लिखा है।
उन्ही संत के दर्शन का सोभाग्य फिर से मिला था आज, तो संत जी ने कहा- पुत्री अपने मुन्ने का नाम मेरे नाम से मत पुकारों, कोई और देव के नाम पर रख दो, आपका बच्चा ठीक हो जाएगा।
संत जी का वचन सत्य साबित होने लगा कुछ समय बाद, अब मुन्ने को दैयो कहने लगे थे, दैयो तीन साल का हो गया था।
एक दिन दैयो की नानी आई , दैयो को अपने साथ ननिहाल ले गयी क्योंकि, दैयो का छोटा भाई भी संसार में आ गया था।
दोनों पुत्रों का ख्याल रखना मुश्किल था, घर का काम भी करना और बच्चों को भी संभालना, इसलिए नानी ने दैयो को अपने पास रख लिया।
दैयो पांच साल का हुआ तो, नानी ने स्कुल में दाखिला दिला दिया, दैयो पढ़ने में होशियार था, पांच साल में पांचवीं कक्षा पास करली।
अब दस साल का हो गया था दैयो, छठी कक्षा में प्रवेश दिलाने के लिए नानी ने वापस बेटी के पास भेज दिया, ननिहाल में स्कुल पांचवीं तक ही थी।
छठी कक्षा में दैयो, नयी स्कुल ,नये मित्र और नये अध्यापकों से मिल रहा था, उमंग और दिल में भय भी अनुभव हो रहा था।
धीरे धीरे आदत और मित्रता बढ़ी, दैयो आठवीं तक पहुंच गया।
अब तो तीसरी स्कुल ढुढनी थी, जो आठवीं से आगे की पढ़ाई करने वाले बच्चों के लिए काम आये।
घर से ढाई कोस दूर एक संस्कृत विद्यालय था दुसरे गांव में, आना जाना भी पैदल ही करना होगा।
साइकिल भी नहीं थी, पिता जी गुजरात में मजदूरी करने जाते थे, घर खर्च आसानी से चल रहा था, पांच पुत्रों के पिता कमाते वो भी कम पड़ने लगा, दैयो भी दूर की स्कुल जाकर , पढ़ना कम और परेशान ज्यादा हो रहा था।
जैसे तैसे नवीं कक्षा पास कर, अपने पिता के साथ काम पर जाने की जरूरत समझी।
पढ़ाई तो छोटे भाई चारों भी कर रहे थे, काम पिता अकेले ही कर रहे थे।
पिता जब घर लौट कर आए तो, साथ चलने वाली बात रखी, पिता जी ने हामी भर दी।
बचपन का मुन्ना,आज का दैयो, पन्द्रहवे वर्ष में अपने जीवन की नयी शुरुआत करने पिता जी के साथ गुजरात की तरफ रवाना हो चुका था।
फिर तो कमाने के चक्कर में न जाने, गुजरात, महाराष्ट्र, आंध्र, कर्नाटक तेलंगाना अनेकों जगहों पर जाने लगा।
शादी भी हो चुकी थी, दो बच्चे भी हो गये, दैयो तीस साल का आदमी हो गया।
अब तक परिवार के सारे सदस्यों ने अपना अपना काम पकड़ लिया, दैयो के माता पिता भी आराम से भगवान की भक्ति कर रहे हैं, सब भाई अपने हिसाब से कमा और खा रहे हैं।
दैयो कभी कभी समय मिलता है तो, संत, समाज, संसार, और सत्य के लेख लिखने की कोशिश कर लेता है।
जाना माना लेखक तो नहीं बन पाया लेकिन, अपना और अपने मित्रों का मन हल्का कर देता है, अपने विचारों से।
अब दैयो को जानने पहचानने वाले लोग उसे, देवा जांगिड़ कह कर पुकारते हैं।
जय श्री राम
।।इति।।

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संत रामानंद जी महाराज के शिष्य

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