दोस्तों, मीरा बाई और तुलसीदास जी की भक्ति के किस्से अद्भुत हैं, और उनकी भक्ति के प्रति गहरी निष्ठा ने उन्हें एक विशेष स्थान प्रदान किया। ऐसी कथा प्रचलित है कि मीरा बाई ने तुलसीदास जी को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति लोगों के विरोध और परिवार के दबाव के बारे में बताते हुए उनसे मार्गदर्शन मांगा था।
कहा जाता है कि मीरा बाई ने तुलसीदास जी को पत्र में लिखा:
"गोसाईं जी, मेरे स्वजन, कुटुंब और ससुराल के लोग मुझे श्रीकृष्ण की भक्ति से दूर करना चाहते हैं। कृपया मुझे बताएं कि इस परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए? मेरे मन में श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति का प्रेम गहरा है, लेकिन लोग मेरे मार्ग में बाधा बन रहे हैं।"
तुलसीदास जी, जो स्वयं भगवान राम के अनन्य भक्त थे, ने मीरा बाई को उत्तर में लिखा कि सच्चा भक्त कभी भी अपने मार्ग से विचलित नहीं होता। उन्होंने एक दोहे में उत्तर दिया:
> "जाके प्रिय न राम वैदेही,
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जो चाहे सुख देही।"
अर्थात, "जिस व्यक्ति को श्रीराम और सीता प्रिय नहीं हैं, उसे लाखों शत्रुओं के समान त्याग देना चाहिए, भले ही वह व्यक्ति सुख देने का वचन क्यों न दे।"
इस संदेश का आशय यह था कि भक्त को अपने ईश्वर-प्रेम के मार्ग में आने वाले किसी भी विरोध या दबाव से विचलित नहीं होना चाहिए, चाहे वह अपने ही परिवार या समाज से क्यों न हो। तुलसीदास जी ने इस उत्तर के माध्यम से मीरा बाई को प्रोत्साहित किया कि वे श्रीकृष्ण की भक्ति में स्थिर रहें और उनके प्रति अपने प्रेम को बनाए रखें।
यह पत्र मीरा बाई को प्रेरणा और आत्मबल देने वाला साबित हुआ। उन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति में अपने समर्पण को और गहरा किया और समाज की परवाह किए बिना अपने आराध्य के प्रति पूर्ण निष्ठा के साथ जीवन बिताया।
अपने अंतिम समय में द्वारिका में अपने कृष्ण में समा गई।