शुक्रवार, नवंबर 29, 2024

केतु ग्रह कौन है? ketu grah aur Shanti


दोस्तों,
केतु हिंदू ज्योतिष और पौराणिक कथाओं में एक महत्वपूर्ण छाया ग्रह माना जाता है। यह राहु की तरह एक छाया ग्रह है, जिसका कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है। ज्योतिष में केतु को रहस्यमय, मोक्षदायक, और आध्यात्मिक ग्रह के रूप में जाना जाता है। इसे ज्ञान, वैराग्य, और आध्यात्मिकता का कारक माना जाता है, और इसका प्रभाव व्यक्ति के मानसिक और आध्यात्मिक विकास पर पड़ता है।

केतु की उत्पत्ति की कथा

केतु का संबंध राहु से है, और दोनों का उत्पत्ति का वर्णन समुद्र मंथन की कथा में मिलता है। पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवताओं और असुरों के बीच समुद्र मंथन के दौरान जब अमृत निकला, तब भगवान विष्णु ने मोहिनी का रूप धारण करके देवताओं को अमृत बांटने का निश्चय किया। स्वरभानु नामक एक असुर ने देवताओं का वेश धारण कर अमृत पी लिया, लेकिन सूर्य और चंद्रमा ने उसे पहचान लिया। इसके बाद भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से स्वरभानु का सिर और धड़ अलग कर दिया। उसके सिर को राहु और धड़ को केतु के रूप में जाना गया।

केतु का स्वरूप

केतु का स्वरूप रहस्यमय और अर्ध-दैवीय माना जाता है। केतु को अक्सर एक धड़ या सर्प के रूप में दिखाया जाता है, जिसमें सिर नहीं होता। इसे धड़-विहीन छाया ग्रह माना जाता है, और इसके प्रभाव को रहस्यमय और कभी-कभी अप्रत्याशित माना जाता है।

ज्योतिष में केतु का महत्व

ज्योतिष में केतु का स्थान व्यक्ति के जीवन में आध्यात्मिकता, वैराग्य, और मुक्ति के मार्ग पर प्रभाव डालता है। इसे मोक्ष का कारक ग्रह कहा गया है। केतु का प्रभाव व्यक्ति के आंतरिक विकास, ध्यान, और ध्यान के प्रति झुकाव को बढ़ाता है। यह व्यक्ति को सांसारिक बंधनों से मुक्त होकर जीवन को गहराई से समझने की प्रेरणा देता है।

केतु के निम्नलिखित प्रभाव होते हैं:

आध्यात्मिकता: यह व्यक्ति को आंतरिक शांति और आत्मज्ञान की ओर ले जाता है।

वैराग्य: केतु के प्रभाव में व्यक्ति सांसारिक सुखों से विमुख होकर मोक्ष के मार्ग पर अग्रसर होता है।

अचानक घटनाएं: कभी-कभी केतु अप्रत्याशित घटनाएं भी लाता है, जिससे जीवन में अचानक बदलाव आ सकते हैं।

ज्ञान और रहस्य: यह ग्रह गहरे ज्ञान और रहस्यों का प्रतीक है। यह व्यक्ति को छिपे हुए या रहस्यमयी ज्ञान की ओर आकर्षित कर सकता है, जैसे कि ज्योतिष, तंत्र, या आध्यात्मिक साधना।


केतु के उपाय और पूजन

केतु के नकारात्मक प्रभाव को कम करने और इसके सकारात्मक प्रभाव को बढ़ाने के लिए कई उपाय किए जाते हैं। इन उपायों में केतु मंत्रों का जाप, धूप, और उपासना शामिल हैं। शनिवार के दिन काले वस्त्र, काले तिल, सरसों का तेल, और दान के माध्यम से केतु की शांति के लिए उपाय किए जा सकते हैं। इसके अलावा ध्यान, योग, और मंत्र जाप भी केतु के प्रभाव को शांत करने में सहायक होते हैं।
केतु का प्रभाव व्यक्ति के जीवन में मानसिक शांति, आत्मज्ञान, और गहरे आध्यात्मिक अनुभव ला सकता है।
धन्यवाद 

गुरुवार, नवंबर 28, 2024

शनि देव जी, surya putra shani dev

दोस्तों,
हिंदू धर्म में नौ ग्रहों की पूजा होती हैं जिसमें से शनि देव को हिंदू धर्म में एक शक्तिशाली देवता के रूप में पूजा जाता है। उन्हें न्याय के देवता माना जाता है, जो कर्मों के आधार पर लोगों को उनके अच्छे या बुरे कर्मों का फल देते हैं। शनि देव का एक विशेष नाम "छाया पुत्र" भी है, क्योंकि वे सूर्य देव और उनकी पत्नी छाया के पुत्र हैं।

शनि देव की कथा और जन्म: पौराणिक कथाओं के अनुसार, सूर्य देव की पत्नी संज्ञा, जो उनके अत्यधिक तेज से असहज थीं, ने अपनी छाया को सूर्य के पास छोड़ दिया और खुद तपस्या के लिए चली गईं। इस छाया से शनि देव का जन्म हुआ। इसलिए उन्हें "छाया पुत्र" कहा जाता है। जब शनि का जन्म हुआ, तब से ही वे तपस्या और साधना में लीन रहे, और बाद में वे न्याय के देवता बने।

शनि देव का स्वरूप और उनका प्रभाव: शनि देव का रंग काला माना जाता है और वे एक काले रंग के वस्त्र पहने होते हैं। वे गिद्ध या काले रथ पर सवार होकर चलते हैं। शनि देव को शनैश्चर भी कहा जाता है, जिसका अर्थ होता है "धीरे चलने वाला"। उनका प्रभाव धीरे-धीरे होता है, और इसी कारण से उनकी दृष्टि का असर भी धीरे-धीरे लोगों के जीवन पर पड़ता है।

शनि का न्याय और कर्म सिद्धांत: शनि देव अपने पिता सूर्य देव की तरह तेजस्वी नहीं हैं, लेकिन उनका प्रभाव हर व्यक्ति के कर्मों पर निर्भर करता है। वे लोगों को उनके अच्छे और बुरे कर्मों का न्याय संगत फल देते हैं। इसलिए लोग उन्हें भय और श्रद्धा के साथ पूजते हैं। कहा जाता है कि अगर किसी व्यक्ति ने अपने जीवन में अच्छे कर्म किए हैं, तो शनि देव उसे अच्छे फल देते हैं, और बुरे कर्मों पर उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ सकता है।

शनि देव की पूजा और उनका महत्व: शनिवार को शनि देव का दिन माना जाता है, और इस दिन लोग उनकी पूजा कर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। ऐसा माना जाता है कि शनि देव की कृपा पाने के लिए लोग सत्य, अहिंसा, और परोपकार के मार्ग पर चलें। उनकी प्रसन्नता के लिए तेल का दान, गरीबों की सेवा, और जप-तप का विशेष महत्व बताया गया है।

शनि देव के प्रति श्रद्धा रखने से व्यक्ति अपने कर्मों को शुद्ध कर जीवन में सकारात्मकता और सुख की प्राप्ति कर सकता है।
"ॐ शं शं शनैश्चराय नमः" मंत्र के जाप से शनि देव जी को प्रसन्न करना चाहिए।
जय श्री शनि देव जी 

मंगलवार, नवंबर 12, 2024

मीरा बाई का पत्र तुलसीदास जी को


दोस्तों, मीरा बाई और तुलसीदास जी की भक्ति के किस्से अद्भुत हैं, और उनकी भक्ति के प्रति गहरी निष्ठा ने उन्हें एक विशेष स्थान प्रदान किया। ऐसी कथा प्रचलित है कि मीरा बाई ने तुलसीदास जी को एक पत्र लिखा था जिसमें उन्होंने अपने आराध्य श्रीकृष्ण के प्रति लोगों के विरोध और परिवार के दबाव के बारे में बताते हुए उनसे मार्गदर्शन मांगा था।

कहा जाता है कि मीरा बाई ने तुलसीदास जी को पत्र में लिखा:

 "गोसाईं जी, मेरे स्वजन, कुटुंब और ससुराल के लोग मुझे श्रीकृष्ण की भक्ति से दूर करना चाहते हैं। कृपया मुझे बताएं कि इस परिस्थिति में मुझे क्या करना चाहिए? मेरे मन में श्रीकृष्ण के प्रति भक्ति का प्रेम गहरा है, लेकिन लोग मेरे मार्ग में बाधा बन रहे हैं।"


तुलसीदास जी, जो स्वयं भगवान राम के अनन्य भक्त थे, ने मीरा बाई को उत्तर में लिखा कि सच्चा भक्त कभी भी अपने मार्ग से विचलित नहीं होता। उन्होंने एक दोहे में उत्तर दिया:

> "जाके प्रिय न राम वैदेही,
तजिए ताहि कोटि बैरी सम, जो चाहे सुख देही।"



अर्थात, "जिस व्यक्ति को श्रीराम और सीता प्रिय नहीं हैं, उसे लाखों शत्रुओं के समान त्याग देना चाहिए, भले ही वह व्यक्ति सुख देने का वचन क्यों न दे।"

इस संदेश का आशय यह था कि भक्त को अपने ईश्वर-प्रेम के मार्ग में आने वाले किसी भी विरोध या दबाव से विचलित नहीं होना चाहिए, चाहे वह अपने ही परिवार या समाज से क्यों न हो। तुलसीदास जी ने इस उत्तर के माध्यम से मीरा बाई को प्रोत्साहित किया कि वे श्रीकृष्ण की भक्ति में स्थिर रहें और उनके प्रति अपने प्रेम को बनाए रखें।

यह पत्र मीरा बाई को प्रेरणा और आत्मबल देने वाला साबित हुआ। उन्होंने श्रीकृष्ण की भक्ति में अपने समर्पण को और गहरा किया और समाज की परवाह किए बिना अपने आराध्य के प्रति पूर्ण निष्ठा के साथ जीवन बिताया।
अपने अंतिम समय में द्वारिका में अपने कृष्ण में समा गई।



सोमवार, नवंबर 11, 2024

तुलसीदास जी का राम मिलन Ram Milan Tulsidas ji



दोस्तों, तुलसीदास जी और भगवान राम के मिलन की कहानी भारतीय भक्ति साहित्य में एक अत्यंत प्रेरणादायक और रहस्यमय घटना मानी जाती है। तुलसीदास जी को राम के अनन्य भक्त और संत के रूप में जाना जाता है। उन्होंने अपना जीवन श्रीराम की भक्ति और साधना में समर्पित कर दिया था, और कहा जाता है कि उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान राम ने उन्हें दर्शन दिए थे। इस घटना के बारे में कई लोक कथाएँ प्रसिद्ध हैं, जिनमें से एक कथा निम्नलिखित है:

हनुमान जी के माध्यम से भगवान राम का दर्शन

कहा जाता है कि तुलसीदास जी काशी में रहकर राम कथा का प्रचार-प्रसार करते थे, लेकिन उनके मन में एक गहरी इच्छा थी कि वे स्वयं भगवान राम के दर्शन करें। एक दिन, हनुमान जी उनके पास साधारण वानर के रूप में आए और उनकी भक्ति और प्रेम से प्रसन्न होकर उन्हें राम दर्शन का मार्ग दिखाया।

हनुमान जी ने तुलसीदास जी से कहा कि वे चित्रकूट में जाकर भगवान श्रीराम के दर्शन पा सकते हैं। तुलसीदास जी ने हनुमान जी की बात मानी और चित्रकूट की यात्रा की। वहाँ उन्होंने कई दिनों तक भगवान राम की भक्ति में ध्यानमग्न होकर साधना की। उनकी भक्ति और प्रेम से प्रसन्न होकर भगवान राम ने उन्हें चित्रकूट के घाट पर एक साधारण राजकुमार के रूप में दर्शन दिए। तुलसीदास जी ने भगवान राम को पहचान लिया और उनके चरणों में गिरकर उनका आशीर्वाद प्राप्त किया।

भगवान राम का वर्णन

भगवान राम के दर्शन का वर्णन करते हुए तुलसीदास जी ने कहा कि रामचंद्रजी का स्वरूप अद्वितीय और दिव्य था। उनका तेज, सुंदरता, और शांति का भाव ऐसा था कि तुलसीदास जी के सारे कष्ट और मोह दूर हो गए। तुलसीदास जी ने भगवान राम को अपने सामने साक्षात देखा और उनकी भक्ति से ओत-प्रोत होकर उनके चरणों में अर्पित हो गए।

रामचरितमानस की रचना का प्रेरणास्त्रोत

भगवान राम के दर्शन के बाद तुलसीदास जी का जीवन पूर्ण रूप से परिवर्तित हो गया। इस दिव्य अनुभव से प्रेरित होकर उन्होंने "रामचरितमानस" की रचना की, जिसमें भगवान राम की संपूर्ण जीवन यात्रा और उनके आदर्शों का वर्णन किया गया। यह काव्य उनके जीवन का मुख्य उद्देश्य बन गया और उन्होंने इसे भगवान राम के प्रति अपने प्रेम और श्रद्धा का प्रतीक माना।

तुलसीदास जी और भगवान राम का विशेष संबंध

इस घटना ने तुलसीदास जी के जीवन में गहरा आध्यात्मिक परिवर्तन किया और भगवान राम के साथ उनके संबंध को और अधिक प्रगाढ़ बना दिया। भगवान राम का यह दर्शन तुलसीदास जी के लिए इतना महत्त्वपूर्ण था कि उन्होंने अपनी रचनाओं में सदैव इसे महसूस किया और अपनी भक्ति के माध्यम से इसे व्यक्त किया।

इस प्रकार, तुलसीदास जी और भगवान राम के मिलन की यह कथा हमें यह सिखाती है कि सच्ची भक्ति और प्रेम से भगवान की कृपा पाई जा सकती है। तुलसीदास जी का जीवन इस बात का प्रतीक है कि जब भक्ति निश्छल होती है, तो स्वयं भगवान अपने भक्त के समक्ष प्रकट हो जाते हैं।
आप भी अपनी भक्ति का भाव कमेंट में "जय श्री राम" लिख कर हमें भेजिए।


तुलसीदास जी की दोहावली tulsidas ji ki dohawali



 दोस्तों, दोहावली संत तुलसीदास जी की एक अद्वितीय रचना है, जिसमें उन्होंने अपने जीवन के अनुभवों, विचारों, और रामभक्ति का सुंदर तरीके से दोहे के माध्यम से वर्णन किया है। दोहावली में दोहा छंद का उपयोग किया गया है, जो तुलसीदास जी की गहन धार्मिकता, भक्ति, और नैतिक शिक्षाओं को सरल और प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत करता है। इसमें जीवन के विभिन्न पहलुओं, जैसे धर्म, भक्ति, सदाचार, प्रेम, ज्ञान, और समाज की स्थिति पर तुलसीदास जी के विचारों को व्यक्त किया गया है।

दोहावली की मुख्य विशेषताएँ:

1. सरल और प्रभावशाली भाषा: तुलसीदास जी ने दोहों में सरल, प्रवाहपूर्ण और मर्मस्पर्शी भाषा का प्रयोग किया है, जिससे उनके विचार सीधे पाठकों के हृदय में उतरते हैं।


2. जीवन के गूढ़ सत्य: इसमें जीवन के अनेक पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है, जैसे कि सांसारिक माया, मोह, अहंकार, मृत्यु, और सत्य का महत्व।


3. नैतिकता और सदाचार: दोहावली में तुलसीदास जी ने नैतिकता, सदाचार और जीवन के सच्चे मार्ग पर चलने का संदेश दिया है।


4. भक्ति और प्रेम का भाव: इसमें भगवान राम के प्रति उनकी भक्ति और प्रेम का गहरा भाव प्रकट होता है, जो भक्तों को भक्ति मार्ग पर चलने की प्रेरणा देता है।


5. समाज और राजनीति पर दृष्टिकोण: तुलसीदास जी ने समाज की विभिन्न समस्याओं और राजनीतिक अस्थिरता का भी उल्लेख किया है, और धर्म तथा न्याय का पालन करने का संदेश दिया है।



प्रसिद्ध दोहे:

"तुलसी मीठे वचन ते, सुख उपजत चहुँ ओर।
वशीकरण यह मंत्र है, परिहरु वचन कठोर॥"

इस दोहे में तुलसीदास जी ने मधुर वचन बोलने की महत्ता बताई है। कठोर वचनों को त्याग कर मधुरता से बात करना सभी को आकर्षित और प्रसन्न करता है।

"सियाराम मय सब जग जानी, करहुं प्रणाम जोरि जुग पानी॥"

इसमें तुलसीदास जी ने जगत को सियाराममय मानकर प्रत्येक व्यक्ति को ईश्वर के रूप में देखने की बात कही है।

दोहावली को पढ़ने और मनन करने से मनुष्य के जीवन में नैतिकता, भक्ति, प्रेम और सहिष्णुता का विकास होता है। यह रचना संपूर्ण जीवन दर्शन को सरल दोहों में प्रस्तुत करती है, जो आज भी समाज में अत्यंत प्रासंगिक हैं।
गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक आप खरीद सकते हैं।


रविवार, नवंबर 10, 2024

कवितावली तुलसीदास जी की रचना kavitaavali tulsidas ji ki rachna

दोस्तों, कवितावली तुलसीदास जी द्वारा रचित एक महत्वपूर्ण काव्य रचना है, जिसमें भगवान श्रीराम के चरित्र, उनकी लीलाओं और गुणों का वर्णन किया गया है। इस रचना में तुलसीदास जी ने राम के प्रति अपनी गहरी भक्ति और आस्था को एक विशेष शैली में व्यक्त किया है। यह काव्य अवधी भाषा में लिखा गया है और इसमें कुल सात कांड हैं, जो रामचरितमानस के कांडों के समान हैं।

कवितावली की विशेषताएँ:

1. काव्य शैली: इसे तुलसीदास जी ने "कवित्त" शैली में लिखा है, जो दोहा और कवित्त जैसी छंदों का मिश्रण है। इसमें उन्होंने काव्य के रस और अलंकारों का अद्भुत प्रयोग किया है।


2. राम की वीरता और मर्यादा: कवितावली में राम का चित्रण एक वीर और मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में किया गया है, जो धर्म की स्थापना के लिए अधर्म का नाश करते हैं।


3. राजनीति और समाज का चित्रण: इसमें तत्कालीन समाज और राजनीति की भी झलक मिलती है। तुलसीदास जी ने रामराज्य का आदर्श प्रस्तुत किया है, जहाँ धर्म, न्याय और सच्चाई की स्थापना होती है।


4. राम और रावण युद्ध: इसमें राम और रावण के युद्ध का विस्तृत और जीवंत वर्णन है, जिसमें राम की वीरता और रावण के अहंकार के नाश का वर्णन किया गया है।


5. भक्ति और प्रेम का भाव: कवितावली में तुलसीदास जी की भक्ति, प्रेम और राम के प्रति आत्मसमर्पण का भाव प्रकट होता है। यह रचना उनके आध्यात्मिक अनुभवों और राम के प्रति उनकी अनन्य भक्ति को दर्शाती है।



प्रसिद्ध पंक्तियाँ:

"मन मंदिर में बैठी रघुनाथा,
करहु कृपा जन पे अपने हाथा।"

कवितावली में तुलसीदास जी ने भगवान राम की महिमा और आदर्शों का ऐसा वर्णन किया है जो किसी को भी भक्तिभाव से अभिभूत कर देता है। यह काव्य ग्रंथ भारतीय साहित्य और भक्ति परंपरा में एक विशेष स्थान रखता है।
दोस्तों मेरी राय से आप गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित पुस्तक खरीद कर पढ़ सकते हैं।

रामचरित मानस तुलसीदास ramcharitmanas tulsidas ji


 दोस्तों, रामचरितमानस तुलसीदास जी द्वारा रचित एक महाकाव्य है, जो भगवान श्रीराम के जीवन और उनके आदर्शों का संपूर्ण वर्णन करता है। इसे रामायण का एक अद्भुत रूपांतरण कहा जा सकता है। तुलसीदास जी ने इसे अवधी भाषा में लिखा, जिससे यह आम जनता के लिए सरल और सुलभ हो गया। इसका रचना काल संवत 1631 (सन् 1574) माना जाता है।

रामचरितमानस सात कांडों में विभाजित है:

1. बाल कांड – श्रीराम के जन्म, बाल्यकाल और उनके विद्या अध्ययन का वर्णन है।


2. अयोध्या कांड – राजा दशरथ का वचन पालन और श्रीराम का वनवास, अयोध्या का शोक चित्रित है।


3. अरण्य कांड – वनवास काल में श्रीराम, सीता और लक्ष्मण के वन जीवन, ऋषि-मुनियों से मिलन, और सीता हरण का वर्णन है।


4. किष्किंधा कांड – श्रीराम का हनुमान और सुग्रीव से मिलन, बाली वध और लंका पर चढ़ाई की तैयारी है।


5. सुंदर कांड – हनुमान जी की लंका यात्रा, सीता से मिलना, लंका दहन और रामभक्ति का संदेश है।


6. लंकाकांड – श्रीराम और रावण के बीच युद्ध का वर्णन है, जिसमें रावण का वध और सीता की मुक्ति होती है।


7. उत्तर कांड – श्रीराम के अयोध्या लौटने, राज्याभिषेक और बाद के घटनाक्रम का उल्लेख है।



रामचरितमानस न केवल एक धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहरा संदेश देने वाला साहित्यिक रत्न भी है। इसमें भक्ति, मर्यादा, सत्य और न्याय के आदर्शों को प्रस्तुत किया गया है, जो समाज को एक अनुकरणीय जीवन जीने की प्रेरणा देता है।
दोस्तों गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित रामचरित मानस ग्रंथ अपने घर पर लाकर जरूर पढ़ें और पुजा कक्ष में अवश्य रखें।

तुलसीदास जी की विनयपत्रिका



दोस्तों, विनयपत्रिका संत तुलसीदास जी की एक महान काव्य रचना है, जिसमें उन्होंने भगवान श्रीराम के प्रति अपनी गहरी भक्ति, विनम्रता और आत्मसमर्पण को व्यक्त किया है। इस ग्रंथ में तुलसीदास जी ने अपनी भावनाओं को बहुत ही सरल, हृदयस्पर्शी और सजीव भाषा में प्रस्तुत किया है। इसे हिंदी साहित्य में भक्ति काव्य का उत्कृष्ट उदाहरण माना जाता है।

विनयपत्रिका में कुल 279 पद हैं, जिनमें तुलसीदास जी ने भगवान श्रीराम के चरणों में अपनी विनम्रता और प्रेम भरे निवेदन किए हैं। इस रचना में भक्त भगवान से विभिन्न रूपों में विनय करते हैं, अपने पापों के लिए क्षमा माँगते हैं, जीवन की कठिनाइयों में प्रभु का सहारा चाहते हैं और उनके कृपा-कटाक्ष के लिए प्रार्थना करते हैं।

इस ग्रंथ के कुछ विशेष पहलू:

1. विनय और आत्मसमर्पण: तुलसीदास जी अपने अहंकार को त्यागकर भगवान के प्रति पूरी तरह समर्पित हो गए हैं और उनके चरणों में विनय करते हैं।


2. प्रार्थना और कष्टों का वर्णन: जीवन के कष्टों, दुखों और मोह-माया की कठिनाइयों को ईश्वर की कृपा से दूर करने की प्रार्थना करते हैं।


3. भक्ति की गहराई: इसमें राम भक्ति की गहनता और ईश्वर से अनुराग का अत्यधिक मार्मिक वर्णन है।


4. मानवता और दीनता का बोध: विनयपत्रिका में तुलसीदास ने इस संसार के मोह, माया और क्षणभंगुरता का बोध करवाया है और बताया है कि सच्चा सुख प्रभु की भक्ति में ही है।



प्रसिद्ध पंक्तियाँ:

"मति भेद देखि ब्याकुल चित, प्रभु! मैं बाँह पकड़ि लेहु।
बिनु स्नेह के करि करुणा मय, मोहि अपनाय लेहु॥"

विनयपत्रिका भक्ति की उस पराकाष्ठा को दिखाती है, जहाँ भक्त अपने आराध्य के सामने पूर्ण रूप से विनम्र, समर्पित और अहंकारविहीन होकर खड़ा रहता है। इसे पढ़ने और मनन करने से व्यक्ति के भीतर भक्ति का संचार होता है और हृदय में भगवान श्रीराम के प्रति गहरी श्रद्धा उत्पन्न होती है।
यह पुस्तक गीताप्रेस गोरखपुर से प्रकाशित हुई, मिल जाएगी।

शनिवार, नवंबर 09, 2024

सम्पूर्ण हनुमान चालीसा


दोस्तों, हनुमान चालीसा तुलसीदास जी द्वारा रचित एक प्रसिद्ध स्तोत्र है जिसमें भगवान हनुमान की स्तुति की गई है। यहाँ इसका सम्पूर्ण पाठ प्रस्तुत है:

दोहा
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि॥

बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि विद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार॥

चौपाई

जय हनुमान ज्ञान गुन सागर।
जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥

राम दूत अतुलित बल धामा।
अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥

महाबीर बिक्रम बजरंगी।
कुमति निवार सुमति के संगी॥

कंचन बरन बिराज सुबेसा।
कानन कुंडल कुंचित केसा॥

हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजे।
काँधे मूँज जनेऊ साजे॥

शंकर सुवन केसरीनंदन।
तेज प्रताप महा जग बंदन॥

विद्यावान गुनी अति चातुर।
राम काज करिबे को आतुर॥

प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया।
राम लखन सीता मन बसिया॥

सूक्ष्म रूप धरि सियहि दिखावा।
बिकट रूप धरि लंक जरावा॥

भीम रूप धरि असुर सँहारे।
रामचंद्र के काज सँवारे॥

लाय सजीवन लखन जियाए।
श्रीरघुबीर हरषि उर लाए॥

रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई।
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥

सहस बदन तुम्हरो जस गावैं।
अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥

सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा।
नारद सारद सहित अहीसा॥

जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते।
कवि कोविद कहि सके कहाँ ते॥

तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा।
राम मिलाय राज पद दीन्हा॥

तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना।
लंकेश्वर भए सब जग जाना॥

जुग सहस्त्र जोजन पर भानू।
लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥

प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं।
जलधि लांघि गए अचरज नाहीं॥

दुर्गम काज जगत के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥

राम दुआरे तुम रखवारे।
होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥

सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम रक्षक काहू को डरना॥

आपन तेज सम्हारो आपै।
तीनों लोक हाँक तें काँपै॥

भूत पिसाच निकट नहिं आवै।
महावीर जब नाम सुनावै॥

नासै रोग हरै सब पीरा।
जपत निरंतर हनुमत बीरा॥

संकट तें हनुमान छुड़ावै।
मन क्रम वचन ध्यान जो लावै॥

सब पर राम तपस्वी राजा।
तिन के काज सकल तुम साजा॥

और मनोरथ जो कोई लावै।
सोइ अमित जीवन फल पावै॥

चारों जुग परताप तुम्हारा।
है परसिद्ध जगत उजियारा॥

साधु संत के तुम रखवारे।
असुर निकंदन राम दुलारे॥

अष्टसिद्धि नव निधि के दाता।
अस बर दीन जानकी माता॥

राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा॥

तुम्हरे भजन राम को पावै।
जनम जनम के दुख बिसरावै॥

अन्त काल रघुबर पुर जाई।
जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥

और देवता चित्त न धरई।
हनुमत सेइ सर्ब सुख करई॥

संकट कटै मिटै सब पीरा।
जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥

दोहा
जय जय जय हनुमान गोसाईं।
कृपा करहु गुरुदेव की नाईं॥

जो सत बार पाठ कर कोई।
छूटहि बंदि महा सुख होई॥

जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा।
होय सिद्धि साखी गौरीसा॥

तुलसीदास सदा हरि चेरा।
कीजै नाथ हृदय महँ डेरा॥

चौपाई
पवन तनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥

हनुमान चालीसा के नियमित पाठ से भक्तों को बल, बुद्धि, और साहस प्राप्त होता है। इसे पाठ करने से जीवन की सभी बाधाएँ दूर होती हैं और भगवान हनुमान की कृपा सदैव बनी रहती है।
आपको हनुमानजी के प्रति अपनी भक्ति का प्रमाण देते हुए, कमेंट बॉक्स में " जय श्री राम" लिख दीजिए।

हनुमान चालीसा की रचना


 दोस्तों, हनुमान चालीसा तुलसीदास जी द्वारा रचित एक अत्यंत प्रसिद्ध भक्ति स्तोत्र है, जो भगवान हनुमान की स्तुति में लिखा गया है। यह अवधी भाषा में 40 चौपाइयों में है, इसीलिए इसे "चालीसा" कहा जाता है। इसमें हनुमान जी के चरित्र, गुणों, वीरता, शक्ति और उनकी भक्ति का वर्णन किया गया है। भक्तों के बीच यह अत्यंत लोकप्रिय है और इसे नियमित रूप से पाठ करने से भगवान हनुमान की कृपा प्राप्त होती है।

हनुमान चालीसा की मुख्य विशेषताएँ:

शक्ति और साहस: हनुमान जी को "अंजनी पुत्र" और "पवनसुत" कहा गया है, और उनकी वीरता तथा बल का महिमामंडन किया गया है।

ज्ञान और बुद्धि: उन्हें ज्ञान और बुद्धि का प्रतीक माना गया है, जो भक्तों को धैर्य और विवेक के साथ कठिनाइयों का सामना करने की प्रेरणा देते हैं।

भक्ति और सेवा: हनुमान जी को श्रीराम के परम भक्त के रूप में दर्शाया गया है, जिन्होंने समर्पण और सेवा का सर्वोच्च उदाहरण प्रस्तुत किया।

संकट मोचक: यह भी माना जाता है कि हनुमान चालीसा का पाठ करने से भक्त के सारे संकट दूर होते हैं और उसे मानसिक और शारीरिक बल प्राप्त होता है।


हनुमान चालीसा का आरंभ इस दोहे से होता है:

"श्री गुरु चरण सरोज रज, निज मन मुकुर सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायक फल चारि।।"

हनुमान चालीसा के पाठ से व्यक्ति को साहस, बल, और सकारात्मक ऊर्जा प्राप्त होती है। इसे नियमित रूप से पढ़ने से मन में आत्मविश्वास और शांति का विकास होता है, और भगवान हनुमान की कृपा से जीवन में आने वाली बाधाओं का नाश होता है।
पूरा हनुमान चालीसा पढ़ने के लिए अगली पोस्ट में पढ़ें।

बुधवार, नवंबर 06, 2024

शनि और हनुमान जी की कहानी


शनि देव और हनुमान जी की कहानी प्राचीन हिंदू ग्रंथों और पौराणिक कथाओं में बताई गई है, जो शनि देव के जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना को दर्शाती है। कथा के अनुसार, जब हनुमान जी श्री राम की सेवा में राक्षसों के साथ युद्ध कर रहे थे, तब शनि देव ने उन्हें चुनौती देने की कोशिश की।

यह कहानी मुख्यतः उस समय की है जब हनुमान जी लंका में थे। हनुमान जी ने रावण की अशोक वाटिका में सीता माता का पता लगाया था और उनकी मदद के लिए आए थे। इसी दौरान, शनि देव ने यह निर्णय लिया कि वे हनुमान जी की परीक्षा लेंगे।

शनि देव ने हनुमान जी से कहा कि वे उन्हें चुनौती देना चाहते हैं, और अगर वे उनके शनि दृष्टि का प्रभाव सहन कर सकते हैं, तो वे उनकी शक्ति को स्वीकार कर लेंगे। परंतु हनुमान जी ने विनम्रता से कहा कि वे श्री राम के कार्य में व्यस्त हैं और इस समय उन्हें कोई भी बाधा नहीं चाहिए।

जब शनि देव ने आग्रह किया और हनुमान जी के ऊपर अपनी दृष्टि डालने का प्रयास किया, तो हनुमान जी ने उन्हें अपनी पूंछ में लपेट लिया और चारों ओर घुमाना शुरू कर दिया। हनुमान जी ने शनि देव को इतना घुमाया कि उन्हें बहुत पीड़ा हुई। तब शनि देव ने हनुमान जी से क्षमा मांगी और कहा कि वे उनकी शक्ति को स्वीकार करते हैं और उनसे कोई भी शत्रुता नहीं करेंगे।

इस पर हनुमान जी ने शनि देव को छोड़ दिया, और शनि देव ने वचन दिया कि वे उन भक्तों को कष्ट नहीं देंगे जो हनुमान जी की भक्ति करते हैं। इसीलिए, आज भी यह माना जाता है कि जो व्यक्ति नियमित रूप से हनुमान चालीसा का पाठ करता है या हनुमान जी की पूजा करता है, उसे शनि की दृष्टि से कष्ट नहीं होता।

शनि और हनुमान जी के बीच की कथा भारतीय पौराणिक कथाओं में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस कथा के अनुसार, जब हनुमान जी शनि देव की परीक्षा लेने के लिए गए, तो उन्होंने शनि की दृष्टि से बचने के लिए अपनी पूंछ को घुमाया, जिससे शनि को उनके साथ कोई शत्रुता नहीं करने का वचन देना पड़ा। इस घटना से यह सिखने को मिलता है कि भक्ति और निष्ठा से बड़े से बड़े संकट टाले जा सकते हैं। हनुमान जी की भक्ति से शनि की दृष्टि का प्रभाव कम होता है।

यह कथा हमें यह संदेश देती है कि भगवान की भक्ति और सच्ची निष्ठा से बड़े से बड़े संकट टाले जा सकते हैं।


भक्त नानी बाई नगर अंजार


दोस्तों, नानी बाई राजस्थान के भक्ति साहित्य और लोक कथाओं में एक विशेष स्थान रखती हैं, विशेषकर "नानी बाई का मायरा" के संदर्भ में।
 "नानी बाई का मायरा" एक प्रसिद्ध कथा है जो मीरा बाई के समय की मानी जाती है, और इसमें श्रीकृष्ण की भक्ति के चमत्कार और उनके द्वारा निभाई गई लाज का मार्मिक चित्रण किया गया है।

नानी बाई का मायरा की कथा

"नानी बाई का मायरा" कथा का आधार यह है कि नानी बाई नामक एक भक्त लड़की का विवाह तय होता है, और परंपरा के अनुसार, लड़की के पिता को मायरा (शादी में देने के लिए विशेष दान और उपहार) भरना होता है। इस कथा के अनुसार, नानी बाई के पिता गरीब और भक्त व्यक्ति होते हैं और उनके पास मायरे के लिए धन नहीं होता है। समाज में अपमान से बचने के लिए और अपनी बेटी का सम्मान बनाए रखने के लिए वे भगवान श्रीकृष्ण की शरण में जाते हैं और प्रार्थना करते हैं।

नानी बाई के पिता जी श्रीकृष्ण के सच्चे भक्त थे, और उन्होंने उनसे मदद की आशा में प्रार्थना की। कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं मायरा भरने का निर्णय लिया। श्रीकृष्ण ने सजी-धजी बारात के साथ अद्भुत भव्यता से मायरे के लिए आवश्यक सभी वस्तुएँ दीं। वे सोने, चाँदी, हीरे, और रत्नों से भरी गठरी लेकर आए और धूमधाम से नानी बाई का मायरा भरा।

नानी बाई का मायरा का महत्व

"नानी बाई का मायरा" कथा भक्ति, समर्पण और भगवान पर अटूट विश्वास का प्रतीक है। यह कथा बताती है कि सच्चे भक्तों की लाज भगवान स्वयं रखते हैं। राजस्थान , गुजरात और मध्य प्रदेश के कई हिस्सों में इस कथा का मंचन किया जाता है और इसे गीतों के माध्यम से भी प्रस्तुत किया जाता है। विशेष अवसरों पर इस कथा का गायन भक्ति के रूप में होता है और इसे गाने वाले भक्त भगवान की महिमा और उनकी कृपा का वर्णन करते हैं।
 भगवान श्रीकृष्ण के भक्तों पर विशेष प्रेम और उनकी भक्ति के प्रति उनकी जिम्मेदारी का प्रतीक है। यह कथा आज भी भक्तों को भगवान में विश्वास रखने और उनकी भक्ति में अडिग रहने की प्रेरणा देती है।
नानी बाई गुजरात के प्रसिद्ध संत और कृष्ण भक्त नरसी मेहता की बेटी थीं। नरसी मेहता (जिन्हें नरसी भगत भी कहा जाता है) का जीवन भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति और उनके प्रति अनन्य प्रेम का उदाहरण है।
नरसी मेहता एक निर्धन और भगवान श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। उनके पास कोई संपत्ति नहीं थी, लेकिन वे कृष्ण में असीम श्रद्धा रखते थे। जब उनकी बेटी नानी बाई का विवाह तय हुआ, तो उन्हें विवाह के रीति-रिवाजों के अनुसार "मायरा" भरना था। मायरा में उपहार, गहने, कपड़े आदि शामिल होते हैं, जिन्हें बेटी के विवाह में देने की परंपरा होती है। लेकिन नरसी मेहता इतने गरीब थे कि उनके पास इस मायरे को भरने के लिए साधन नहीं थे। इस परिस्थिति में, उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रार्थना की और उन पर अपना भरोसा बनाए रखा।

नरसी मेहता की भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान श्रीकृष्ण ने उनकी लाज रखी और स्वयं गोकुल से द्वारिका तक मायरा भरने के लिए आए। कथा के अनुसार, भगवान कृष्ण ने अद्भुत वैभव के साथ मायरे की सभी आवश्यकताओं को पूरा किया। सोने-चाँदी के आभूषण, रत्न, वस्त्र और सभी प्रकार के उपहार भगवान स्वयं अपने दिव्य रूप में लाकर मायरा भरे और इस प्रकार नरसी मेहता की पुत्री नानी बाई का विवाह संपन्न हुआ।

"नानी बाई का मायरा" कथा भक्तों के बीच यह संदेश देती है कि सच्चे भक्त की सहायता भगवान स्वयं करते हैं और उसकी लाज कभी नहीं जाने देते।
यह कथा आज भी भक्ति और समर्पण का प्रतीक मानी जाती है और गुजरात, राजस्थान, और मध्य प्रदेश में बड़े प्रेम और श्रद्धा के साथ गाई जाती है।
तो कमेंट बॉक्स मे जय श्री कृष्ण लिखिए और अगली पोस्ट पर जाकर अन्य जानकारी पढ़िए।

मंगलवार, नवंबर 05, 2024

भक्त शिरोमणि मीरा बाई मेड़तिया


मीरा बाई (1498–1547) का जन्म राजस्थान के मेड़ता में हुआ था और वे राजा रत्नसिंह की बेटी थीं। मीरा बचपन से ही भगवान श्रीकृष्ण के प्रति गहरी भक्ति रखती थीं। उनका विवाह चित्तौड़ के राजा भोजराज से हुआ था, लेकिन पति की मृत्यु के बाद उन्होंने सांसारिक बंधनों से खुद को मुक्त कर लिया और पूरी तरह से कृष्ण-भक्ति में लीन हो गईं।

मीरा बाई की कविताएँ और भजन उनके भगवान के प्रति प्रेम, भक्ति और समर्पण की भावनाओं से भरी हुई हैं। उनकी रचनाएँ राजस्थानी, ब्रज, और गुजराती भाषाओं में मिलती हैं। मीरा ने अपने भजनों में श्रीकृष्ण को अपने पति और प्रियतम के रूप में संबोधित किया है और सामाजिक बंधनों की परवाह किए बिना, खुलकर अपने प्रेम का इज़हार किया। उनके भजनों में भक्ति, पीड़ा, और एकाग्रता की झलक मिलती है, जो आज भी लोगों के दिलों को छूती हैं।

मीरा बाई का जीवन और उनका साहित्यिक योगदान आज भी भारतीय भक्ति आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। उनका सरल और भावपूर्ण भक्ति मार्ग भक्तों को श्रीकृष्ण के प्रति असीम प्रेम और समर्पण का संदेश देता है।
मीरा बाई का जीवन सोलहवीं शताब्दी में हुआ था। उनका जन्म राजस्थान के मेड़ता नगर में 1498 में राठौर राजवंश के एक राजघराने में हुआ। उनके पिता राव रतन सिंह राठौर एक प्रतिष्ठित क्षत्रिय थे। मीरा का पालन-पोषण एक राजकुमारी की तरह हुआ, लेकिन उनका मन बचपन से ही सांसारिक सुख-सुविधाओं के बजाय भगवान कृष्ण में लगा रहा।

बाल्यकाल और कृष्ण भक्ति की शुरुआत
मीरा बाई को बचपन से ही श्रीकृष्ण के प्रति विशेष प्रेम था। उनके जीवन में एक महत्वपूर्ण घटना तब घटी जब उन्होंने एक कृष्ण प्रतिमा देखी और उसे अपना पति मान लिया। इस घटना ने उनकी कृष्ण भक्ति को और गहरा कर दिया। बाल्यकाल में ही वे कृष्ण की भक्त बन गईं और हर समय उनकी उपासना में लीन रहने लगीं।

विवाह और वैवाहिक जीवन
मीरा का विवाह मेवाड़ के राजा भोजराज से हुआ। यह विवाह एक राजनीतिक गठजोड़ के रूप में हुआ था। उनके पति भोजराज वीर और धर्मनिष्ठ व्यक्ति थे, लेकिन मीरा बाई की कृष्ण के प्रति भक्ति को वे पूरी तरह से समझ नहीं पाए। शादी के बाद भी मीरा का श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति बढ़ती गई। वे समाज के रीति-रिवाजों का पालन करने के बजाय कृष्ण की भक्ति में लीन रहतीं, जिससे कई बार ससुराल में उन्हें निंदा का सामना करना पड़ा।

पति और ससुराल के बाद का जीवन
शादी के कुछ समय बाद ही भोजराज का निधन हो गया, जिसके बाद मीरा का जीवन कठिनाइयों से भर गया। परिवार के लोगों ने उन पर कई तरह के प्रतिबंध लगाए और उन्हें अपनी भक्ति छोड़ने के लिए मजबूर करने की कोशिश की। लेकिन मीरा ने इन सभी कठिनाइयों का साहस से सामना किया और अपनी कृष्ण भक्ति में डूबी रहीं।

त्याग और संन्यास का जीवन
ससुराल में प्रताड़ित होने के बाद मीरा ने सांसारिक बंधनों को त्याग दिया और मथुरा व वृंदावन जैसे तीर्थ स्थानों की यात्रा की। वे साधुओं और संतों के साथ समय बिताने लगीं और पूरी तरह से कृष्ण की भक्ति में डूब गईं। बाद में वे द्वारका चली गईं, जहाँ उन्होंने अपना अंतिम समय बिताया।

मीरा बाई की मृत्यु
ऐसा माना जाता है कि 1547 में मीरा बाई ने श्रीकृष्ण की भक्ति में ध्यान लगाते हुए अपना शरीर त्याग दिया। एक कथा के अनुसार, वे द्वारका के कृष्ण मंदिर में ध्यानमग्न होकर भगवान में विलीन हो गईं।

साहित्यिक योगदान
मीरा बाई ने अपने जीवन में कई भक्ति गीतों और भजनों की रचना की। उनके भजनों में भगवान कृष्ण के प्रति उनका गहरा प्रेम, समर्पण और दर्द व्यक्त होता है। उनकी रचनाओं में सामाजिक बंधनों के प्रति विद्रोह और भक्ति की स्वतंत्रता की भावना भी देखने को मिलती है।

मीरा बाई का जीवन प्रेम, भक्ति और समर्पण का उदाहरण है। उनके द्वारा गाए गए भजन आज भी लोगों को कृष्ण भक्ति की राह पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं।
मीराबाई की रचनाएँ उनकी गहरी भक्ति और भगवान श्रीकृष्ण के प्रति उनके अनन्य प्रेम का प्रतीक हैं। उनके भजनों और कविताओं में प्रेम, समर्पण, और समाज के बंधनों के प्रति विद्रोह के भाव स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। मीरा बाई के भजन मुख्य रूप से ब्रज भाषा, राजस्थानी, और गुजराती में रचे गए हैं, और इनमें सादगी के साथ भावनाओं की गहराई भी झलकती है।

उनकी कुछ प्रमुख रचनाएँ और भजनों के विषय इस प्रकार हैं:

1. प्रेम और समर्पण
मीरा बाई की रचनाओं का सबसे मुख्य विषय श्रीकृष्ण के प्रति उनका प्रेम और संपूर्ण समर्पण है। उदाहरण के लिए उनका प्रसिद्ध भजन है:

> "पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।"
इस भजन में वे अपने आत्मिक धन के रूप में भगवान का नाम प्राप्त करने की अनुभूति व्यक्त करती हैं।




2. कृष्ण को पति मानकर भक्ति
मीरा ने श्रीकृष्ण को अपना पति और प्रियतम मानकर उनकी भक्ति की। उनके भजनों में एक पत्नी की तरह अपने प्रियतम की प्रतीक्षा और विरह का अनुभव है। जैसे:

> "मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई।"
इस भजन में मीरा ने भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम और समर्पण को व्यक्त किया है, जहाँ उनके लिए कृष्ण के अलावा कोई और प्रिय नहीं है।




3. विरह और पीड़ा
मीरा बाई के भजनों में विरह की वेदना और कृष्ण से मिलन की आकांक्षा भी दिखाई देती है। उनके कई भजन कृष्ण से मिलन की तड़प और पीड़ा को व्यक्त करते हैं, जैसे:

> "मैं तो साँवरे के रंग राची।"
इस भजन में वे कृष्ण के प्रेम में रंगी होने की बात करती हैं और उनकी अनुपस्थिति में अपने दर्द को अभिव्यक्त करती हैं।




4. सामाजिक बंधनों का विरोध
मीरा बाई की रचनाओं में समाज और पारिवारिक बंधनों के प्रति विद्रोह भी दिखता है। उन्होंने खुलकर अपने प्रेम का इज़हार किया और समाज की बंदिशों को नकारते हुए अपने मार्ग पर डटी रहीं। उदाहरण:

> "लाल गिरधर बिन रह ना सकूँ।"
इसमें वे कहती हैं कि बिना अपने गिरधर के वे जी नहीं सकतीं, चाहे समाज कुछ भी कहे।




5. भक्ति का उच्च आदर्श
मीरा बाई का भक्ति मार्ग किसी भौतिक वस्तु की कामना नहीं करता बल्कि केवल भगवान से मिलन की कामना करता है। उनके एक और प्रसिद्ध भजन में वे कहती हैं:

> "जो मैं ऐसा जानती, प्रीत किए दुःख होय।"
इस भजन में वे भक्ति और प्रेम के मार्ग में मिलने वाले कष्टों का उल्लेख करती हैं, लेकिन फिर भी इस मार्ग को अपनाने की बात करती हैं।





मीरा बाई के ये भजन भारतीय भक्ति साहित्य की धरोहर हैं और आज भी उनके भावपूर्ण भजन भक्तों में अपार श्रद्धा और प्रेरणा का संचार करते हैं। उनकी रचनाएँ भक्तों को भगवान के प्रति समर्पण और प्रेम के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करती हैं।
मीरा बाई के बारे में पूरा लिखना किसी के वश में नहीं है इसलिए हम जितना जानते थे उतना ही आपको बता पा रहे है, कमेंट करते हुए बताए कि और कोई जानकारी है।

कमाल और कमाली जी

 

दोस्तों, कमाल और कमाली का नाम तो सुना होगा लेकिन आज हम आपको बताएंगे कि आख़िर कौन थे ये दोनों, तो आइए जानते हैं इनके बारे में 


कमाल और कमाली कबीरदास जी के पुत्र और पुत्री माने जाते हैं।

 ये दोनों कबीर की शिक्षाओं से प्रभावित थे और उन्होंने उनके विचारों को अपने जीवन में अपनाया।

 कमाल और कमाली दोनों ने कबीर के सिद्धांतों के अनुसार जीवन व्यतीत किया और उनके उपदेशों को लोगों तक पहुँचाने का कार्य किया।


कमाल:


कमाल कबीरदास के पुत्र थे।

 ऐसा माना जाता है कि वे भी अपने पिता की तरह सरल और सच्ची भक्ति के अनुयायी थे। 

कबीर की शिक्षाओं का उन पर गहरा प्रभाव पड़ा, और उन्होंने भी अंधविश्वास, जाति-पाति, और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ आवाज उठाई। 

कमाल के विचारों में कबीर की भक्ति और सत्य का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है, और उन्होंने भी अपने काव्य और विचारों के माध्यम से समाज को सुधारने का प्रयास किया।


कमाली:


कमाली, कबीर की पुत्री थीं। 

उनके बारे में ज्यादा ऐतिहासिक जानकारी नहीं मिलती, लेकिन कहा जाता है कि वे भी अपने पिता के भक्ति और समाज सुधार के विचारों को मानती थीं। 

कबीर की शिक्षाओं के अनुसार, उन्होंने भी समाज के परंपरागत ढाँचों को चुनौती दी और एक सच्ची भक्ति का पालन किया।


कबीर और उनके परिवार का योगदान:


कमाल और कमाली ने कबीर के सिद्धांतों को अपने जीवन में अपनाया और उनका प्रचार-प्रसार किया।

 हालांकि उनके बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है, लेकिन यह माना जाता है कि कबीर के परिवार ने उनकी शिक्षाओं को जीवित रखने और समाज में फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 

कबीर के सिद्धांतों और उपदेशों को आगे बढ़ाने में उनके परिवार और शिष्यों का विशेष योगदान रहा।

तो कैसी लगी हमारी जानकारी , कमेंट बॉक्स में बताएं, क्या आप भी कमाल कमाली के बारे में कोई और घटना या जानकारी जानते हैं तो कमेंट 

में लिख कर भेज सकते हैं।


सोमवार, नवंबर 04, 2024

संत नरसी मेहता की हुंडी

दोस्तों आज आप जानेंगे सेठ नरसी जी मेहता से कृष्ण भक्त बने नरसी जी की एक प्यारी कथा के बारे जो 
"नरसी मेहता की हुंडी" एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा है आइए इस कथा को विस्तार से समझते हैं।
 संत नरसी मेहता की कृष्ण भक्ति और भगवान श्रीकृष्ण के अपने भक्तों के प्रति अनन्य प्रेम और कृपा का अद्भुत उदाहरण प्रस्तुत करती है।
 इस कथा में यह दर्शाया गया है कि सच्चे भक्त के प्रति भगवान का कैसा भाव रहता है और वह कैसे अपने भक्त की लाज रखता है।

कथा का सारांश

संत नरसी मेहता भगवान श्रीकृष्ण के अनन्य भक्त थे, लेकिन वे आर्थिक रूप से बहुत गरीब थे।
 एक बार, उन्हें किसी विशेष कार्य के लिए पैसे की आवश्यकता थी, और मदद के लिए उनके पास कोई विकल्प नहीं था।
 तब उन्होंने अपने ईश्वर, भगवान श्रीकृष्ण पर विश्वास रखते हुए भगवान के नाम पर "हुंडी" (एक प्रकार का वचन पत्र जो उस समय का वित्तीय लेनदेन का साधन था) लिख दी। इस हुंडी में यह लिखा था कि यह हुंडी देने वाले को धन का भुगतान भगवान स्वयं करेंगे।

यह हुंडी नरसी मेहता ने एक व्यापारी को दी। व्यापारी ने हुंडी देखकर सोचा कि यह किसी गरीब आदमी का मजाक है, क्योंकि भगवान कैसे किसी को पैसा दे सकते हैं! फिर भी, वह हुंडी लेकर द्वारका गया, जहाँ भगवान कृष्ण का मंदिर स्थित है।
 वहां व्यापारी ने इस हुंडी को भगवान के सामने रखा और कहा कि उसे इसका भुगतान चाहिए।

भगवान श्रीकृष्ण का चमत्कार

भगवान श्रीकृष्ण ने अपने भक्त नरसी मेहता की लाज रखते हुए उस व्यापारी को चमत्कारिक रूप से हुंडी की पूरी राशि का भुगतान किया।
 कहा जाता है कि स्वयं भगवान ने किसी माध्यम से उसे धन प्रदान किया।
 इस प्रकार, वह व्यापारी यह देखकर दंग रह गया कि नरसी मेहता का विश्वास और भक्ति वास्तविक थे।

कथा का संदेश


"नरसी मेहता की हुंडी" कथा में भक्ति, विश्वास, और भगवान के प्रति पूर्ण समर्पण का संदेश है। 
यह कथा सिखाती है कि यदि हमारी भक्ति सच्ची और निष्कपट हो, तो भगवान हमारी सहायता अवश्य करते हैं और हर संकट में हमारे साथ खड़े रहते हैं। 
नरसी मेहता का यह विश्वास था कि भगवान श्रीकृष्ण उनकी हर समस्या का समाधान करेंगे, और उनका यही अटूट विश्वास इस कथा का आधार बना।

इस कथा का आयोजन भी कई जगहों पर किया जाता है और इसे भक्ति गीतों, नाटकों और कथाओं के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है।
आपके वहां पर नरसी भक्त की कौनसी कथा ज्यादा फैमस हैं, हमे कमेंट बॉक्स में बताएं ताकि हम अगली पोस्ट में विस्तार से जानकारी देने की कोशिश करेंगे।

भक्त नरसी मेहता

दोस्तों आप जानेंगे कि इस कहानी में हम जूनागढ़ के एक भक्त की जीवन यात्रा,
संत नरसी मेहता गुजरात के महान भक्त कवि और संत थे, 
 उनका जन्म 15वीं शताब्दी में गुजरात के तलाजा या जूनागढ़ में हुआ था। 
नरसी मेहता भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त थे, और उनका जीवन कृष्ण भक्ति, प्रेम, करुणा और समाज सुधार की प्रेरणा से परिपूर्ण था।

उनकी रचनाओं में भक्ति और प्रेम के सुंदर भाव व्यक्त होते हैं। उनके गीत और भजन सामाजिक समानता और मानवता के आदर्शों को दर्शाते हैं। 
"वैष्णव जन तो तेने कहिए" गीत में उन्होंने यह संदेश दिया कि सच्चा वैष्णव वही है जो दूसरों के दुःख को महसूस करता है, बिना अभिमान के सेवा करता है, और हमेशा सत्य व करुणा के मार्ग पर चलता है।

संत नरसी मेहता का जीवन कई चमत्कारी घटनाओं से भी जुड़ा हुआ माना जाता है, जिनमें भगवान कृष्ण की उनकी भक्ति के कारण उन पर कृपा की अनेक कहानियाँ प्रसिद्ध हैं।
नरसी मेहता की कृष्ण भक्ति गहरी और समर्पण से परिपूर्ण थी।
 उन्होंने अपने जीवन में भगवान श्रीकृष्ण को अपने आराध्य देव के रूप में माना और उनके प्रति अपार प्रेम और विश्वास प्रकट किया। 
उनकी भक्ति सरल, निष्कपट और पूर्ण समर्पण का प्रतीक थी, जो भक्तों के लिए आदर्श मानी जाती है। नरसी की कृष्ण भक्ति में कई पहलू देखने को मिलते हैं:

1. प्रेम और समर्पण की भक्ति

नरसी मेहता ने भगवान कृष्ण के प्रति अपनी भक्ति में प्रेम और समर्पण का भाव प्रकट किया।
 उनके भजन और रचनाएँ भगवान के प्रति गहरे प्रेम और निष्ठा से भरी हुई हैं। 
वे मानते थे कि भगवान के प्रति प्रेम करना ही जीवन का सच्चा उद्देश्य है।

2. सुदामा चरित्र

नरसी मेहता की कृष्ण भक्ति में सुदामा चरित्र बहुत प्रसिद्ध है। 
उनके भजनों में सुदामा की निर्धनता के बावजूद भगवान कृष्ण के प्रति उनकी भक्ति का वर्णन है, जो यह सिखाता है कि ईश्वर के प्रति भक्ति में धन-दौलत का कोई महत्व नहीं होता।

3. भगवान पर अटूट विश्वास

नरसी मेहता का जीवन कठिनाइयों से भरा हुआ था, लेकिन हर परिस्थिति में उन्होंने भगवान कृष्ण पर अटूट विश्वास रखा। 
कई कथाएँ प्रचलित हैं कि जब वे किसी संकट में होते, तो भगवान कृष्ण उनकी सहायता करते। 
इसका उदाहरण उनके जीवन की घटनाओं में देखा जा सकता है, जैसे "हर माला प्रकरण", जिसमें भगवान ने उनके जीवन को चमत्कारिक रूप से संकटों से बचाया।

4. वैष्णव जन का संदेश

"वैष्णव जन तो तेने कहिए" उनके सबसे प्रसिद्ध भजनों में से एक है, जिसमें नरसी ने सच्चे भक्त का वर्णन किया है। उन्होंने इस भजन के माध्यम से यह संदेश दिया कि सच्चा कृष्ण भक्त वही है जो दूसरों के दुख को समझे, अभिमान त्यागे, और हमेशा दूसरों की मदद करे।

5. रासलीला और बाल लीला

नरसी मेहता की रचनाओं में भगवान की बाल लीला और रासलीला का सुंदर वर्णन है। 
उनके भजनों में भगवान के बाल रूप की भोली-भाली लीलाओं और गोपियों के साथ उनकी रासलीला का वर्णन बहुत ही सरल और मोहक ढंग से किया गया है, जिससे भक्तों का मन भगवान के प्रति जुड़ता है।

6. सामाजिक संदेश

नरसी की कृष्ण भक्ति में समाज सुधार की भावना भी समाहित थी।
 उन्होंने जाति-भेद और सामाजिक असमानताओं का विरोध किया।
 वे मानते थे कि हर व्यक्ति में भगवान का वास है, और भगवान का भक्त बनने के लिए समाज द्वारा बनाए गए भेदभाव को त्यागना आवश्यक है।
"नानी बाई का भात" एक प्रसिद्ध पौराणिक कथा और लोककथा है जो संत नरसी मेहता और उनकी कृष्ण भक्ति से जुड़ी है।
 इस कथा में भगवान कृष्ण की अपने भक्तों के प्रति अनन्य कृपा और प्रेम का वर्णन है। यह कथा विशेष रूप से राजस्थान और गुजरात में प्रसिद्ध है, जहाँ इसे भक्ति भाव से प्रस्तुत किया जाता है।
 आइए जानते हैं इस कथा के मुख्य अंश:

कथा का सारांश

नरसी मेहता भगवान कृष्ण के अनन्य भक्त थे, लेकिन वे आर्थिक रूप से बहुत गरीब थे।
 एक दिन, उनकी बेटी नानी बाई का विवाह हो गया, और उसके ससुराल वालों ने विवाह के बाद उसे विदा कराने के लिए भात (भात संस्कार, जो लड़की के पिता द्वारा ससुराल में किया जाता है) करने की मांग की।
 भात में लड़की के पिता को अपनी बेटी और उसके परिवार के लिए उपहार, भोजन और अन्य व्यवस्थाएँ करनी होती हैं।

हालाँकि, नरसी मेहता इतने गरीब थे कि उनके पास भात का आयोजन करने के लिए धन नहीं था। 
उनके पास न तो धन था, न ही संसाधन, जिससे वे इस सामाजिक जिम्मेदारी को निभा सकें। 
समाज के लोग उनका मजाक उड़ाने लगे और सोचने लगे कि वे अपनी बेटी के लिए भात का आयोजन नहीं कर पाएंगे।

भगवान कृष्ण की लीला

नरसी मेहता भगवान कृष्ण के समर्पित भक्त थे, और उन्होंने अपनी सारी चिंताओं को भगवान पर छोड़ दिया। उन्होंने भगवान कृष्ण से प्रार्थना की कि वे उनकी लाज बचाएँ।

भगवान कृष्ण ने अपने भक्त की प्रार्थना सुन ली और चमत्कारिक रूप से सुदामा का रूप धारण करके नानी बाई के ससुराल में पहुँच गए।
 वहाँ उन्होंने स्वयं नरसी मेहता के नाम से भात की सभी व्यवस्थाएँ कीं।
 भगवान ने सभी अतिथियों के लिए भोजन, आभूषण, कपड़े और अन्य उपहारों की इतनी सुंदर व्यवस्था की कि नानी बाई का ससुराल पक्ष चकित रह गया।
 उन्होंने सोचा कि नरसी मेहता तो बहुत धनी व्यक्ति हैं।

कथा का संदेश

"नानी बाई का भात" कथा में भक्ति, प्रेम, और भगवान के प्रति अटूट विश्वास का संदेश है। 
यह कथा हमें सिखाती है कि सच्ची भक्ति में शक्ति होती है, और यदि हमारी आस्था मजबूत हो, तो भगवान हमेशा हमारे साथ होते हैं। 
जब भक्त भगवान पर संपूर्ण विश्वास करता है, तो भगवान भी अपने भक्त की हर तरह से सहायता करते हैं, चाहे परिस्थिति कैसी भी हो।

इस कथा का आयोजन भारत के कई हिस्सों में भक्ति संगीत और नाटकों के रूप में किया जाता है, जिससे भक्तों में भगवान के प्रति प्रेम और विश्वास बढ़ता है। 
"नानी बाई का भात" आज भी भक्तों के बीच कृष्ण भक्ति का एक महान उदाहरण है।



निष्कर्ष

नरसी मेहता की कृष्ण भक्ति में प्रेम, समर्पण, विश्वास और करुणा का मिश्रण है।
 उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण को अपना सखा, गुरु और आराध्य मानते हुए भक्ति की, और उनके भजनों ने लाखों लोगों को भक्ति और समाज में प्रेम और समानता का संदेश दिया। 
उनकी कृष्ण भक्ति आज भी भक्तों के लिए प्रेरणादायी है।
 नरसी मेहता के जीवन से आपको क्या शिक्षा मिलती हैं कमेंट बॉक्स मे जरूर बताएं और अन्य भक्तों, संतो की जीवन यात्रा को पढ़ने के लिए अगली पोस्ट पर क्लिक करें।



शनिवार, नवंबर 02, 2024

भक्त धन्ना दास जी महाराज


 दोस्तों आज हम संत समाज के सबसे सरल स्वभाव और भोलेपन के कारण भगवान के प्रिय भक्त के बारे में पूरी जानकारी पाने वाले हैं 

संत धन्ना दास  जिन्हें धन्ना जी के नाम से भी जाना जाता है, एक प्रसिद्ध संत और भक्त कवि थे, जो 15वीं-16वीं सदी के दौरान जीवित रहे। उनका जीवन और शिक्षाएं भारतीय भक्ति आंदोलन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।


जीवन:


जन्म: धन्ना दास का जन्म राजस्थान के एक छोटे से गाँव में हुआ था। वे एक सामान्य किसान परिवार से थे, और उन्होंने अपने जीवन के अधिकांश समय को भगवान की भक्ति में समर्पित किया।


पेशे: वे अपने गाँव में एक साधारण किसान थे, लेकिन भक्ति के प्रति उनकी गहरी श्रद्धा ने उन्हें संत के रूप में प्रतिष्ठित किया।



शिक्षाएं:


भक्ति का मार्ग: धन्ना दास ने भक्ति को सरल और सच्चे मन से ईश्वर की सेवा के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने भक्ति में प्रेम और समर्पण का महत्व बताया।


सामाजिक समानता: उन्होंने जाति और वर्ग के भेदभाव को नकारते हुए सभी मानवों को एक समान समझा। उनका संदेश था कि भक्ति का मार्ग सभी के लिए खुला है।


कविता: धन्ना दास ने अपनी भक्ति को व्यक्त करने के लिए सरल और प्रभावशाली भाषा में पद रचे। उनके पदों में भक्ति और प्रेम का गहरा अनुभव होता है।

गुरु-शिष्य संबंध: धन्ना दास जी ने संत रामानंद जी से भक्ति का मार्ग अपनाया। उन्होंने अपने गुरु की शिक्षाओं को आत्मसात किया और उन्हें अपने जीवन में लागू किया।


भक्ति का प्रचार: संत धन्ना दास जी ने अपने गुरु की शिक्षाओं को अपने पदों और भक्ति गीतों के माध्यम से फैलाया, जिससे भक्ति आंदोलन को और भी मजबूती मिली।

अद्भुत घटनाएँ:


धन्ना जी के जीवन में कई अद्भुत घटनाएँ घटीं, जो उनकी भक्ति को और भी प्रगाढ़ बनाती हैं। कहा जाता है कि एक बार धन्ना जी ने भगवान को अपने खेतों में बुलाया और उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान ने उन्हें दर्शन दिए। यह घटना उनकी गहरी भक्ति और ईश्वर के प्रति अटूट प्रेम को दर्शाती है।


योगदान:


संत धन्ना दास ने अपने भक्ति गीतों और रचनाओं के माध्यम से भक्ति आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनकी शिक्षाएँ और विचार आज भी लोगों को प्रेरित करते हैं।


उनके संदेशों ने भारतीय समाज में एकता और प्रेम का प्रचार किया, और उन्होंने लोगों को भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।

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संत धन्ना दास की भक्ति और शिक्षाएँ आज भी भक्ति साहित्य में महत्वपूर्ण मानी जाती हैं, और उनके विचार मानवता और प्रेम के लिए एक गहरा संदेश प्रदान करते हैं।

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संत धन्ना दास जी के बारे में और कोई जानकारी आपके पास है जो, हम नहीं लिख सके, तो कृपया आप हमें कमेंट बॉक्स में बताएं 

संत रामानंद जी महाराज के शिष्य

 

दोस्तों आज के सबसे प्रसिद्ध गुरु जी जिनके लगभग सभी शिष्य आगे चलकर महान हुए, ऐसे सबसे ज्यादा शिष्यों वाले, संत रामानंद जी के कुछ शिष्यों की जानकारी देने वाले हैं। जिनमें आठ प्रमुख शिष्य थे 


संत रामानंद, भक्ति आंदोलन के एक प्रमुख संत और संत कवि थे। 

उन्होंने निर्गुण और सगुण भक्ति का प्रचार किया और सभी जाति-वर्ग के लोगों को अपने शिष्य के रूप में स्वीकार किया।

 रामानंद के प्रमुख शिष्यों में कई महान संत शामिल थे जिन्होंने भक्ति मार्ग को आगे बढ़ाया। 

उनके शिष्यों में शामिल प्रमुख संतों के नाम इस प्रकार हैं:


1. कबीरदास:कबीर दास रामानंद के सबसे प्रसिद्ध शिष्य माने जाते हैं। 

वे निर्गुण भक्ति के महान संत और कवि थे जिन्होंने समाज में व्याप्त अंधविश्वास, पाखंड, और सांप्रदायिक भेदभाव का विरोध किया था, इनके बारे में पूरी जानकारी के लिए हमारी अन्य पोस्ट में देखें।



2. रैदास (रविदास): संत रविदास का जन्म एक चर्मकार परिवार में हुआ था।

 वे भी रामानंद के शिष्य थे और भक्ति मार्ग के महान संतों में से एक माने जाते हैं। 

उनकी रचनाओं में भक्ति, मानवता और प्रेम का संदेश मिलता है। इनके बारे में पूरी जानकारी के लिए हमारी अन्य पोस्ट में देखें।



3. पीपा जी महाराज  : राजा पीपा, जो पहले एक राजपूत राजा थे, रामानंद के शिष्य बनने के बाद संत बन गए।

 उन्होंने राजसी जीवन छोड़कर साधना और भक्ति का मार्ग अपनाया और अपने जीवन को ईश्वर की भक्ति में समर्पित कर दिया। इनके बारे में पूरी जानकारी के लिए हमारी अन्य पोस्ट में देखें।



4. सेठ धन्ना जी : संत धन्ना का जन्म एक किसान परिवार में हुआ था। 

वे भी रामानंद के शिष्य बने और उनकी भक्ति की प्रसिद्ध कहानियाँ आज भी लोगों में प्रचलित हैं। इनके बारे में पूरी जानकारी के लिए हमारी अन्य पोस्ट में देखें।



5. सुरदास: संत सूरदास जी को भी रामानंद का शिष्य माना जाता है।

 वे भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे और अपने सुंदर भक्ति गीतों और भजनों के लिए प्रसिद्ध हैं। इनके बारे में पूरी जानकारी के लिए हमारी अन्य पोस्ट में देखें।



6. सेन: सेन जी एक नाई समुदाय से थे और रामानंद के प्रमुख शिष्यों में गिने जाते हैं। 

उन्होंने भी भक्ति के मार्ग को अपनाया और अपने सरल जीवन के माध्यम से समाज को भक्ति का संदेश दिया। इनके बारे में पूरी जानकारी के लिए हमारी अन्य पोस्ट में देखें।



7. साधना: संत साधना का जन्म एक कसाई परिवार में हुआ था। रामानंद के शिष्य बनकर उन्होंने भक्ति और साधना का मार्ग अपनाया और अपने समाज को प्रेम और सहिष्णुता का संदेश दिया। इनके बारे में पूरी जानकारी के लिए हमारी अन्य पोस्ट में देखें।



8. नरहर्यानंद: नरहर्यानंद रामानंद के शिष्यों में से एक थे। उनके बारे में विशेष विवरण उपलब्ध नहीं है, लेकिन माना जाता है कि वे भी रामानंद के भक्ति मार्ग को आगे बढ़ाने में सहायक रहे। इनके बारे में पूरी जानकारी के लिए हमारी अन्य पोस्ट में देखें।




इनके अलावा कई और शिष्यों ने अपने जीवन में रामानंद के सिद्धांतों और शिक्षाओं को अपनाया और समाज में भक्ति और समानता का संदेश फैलाया। 

रामानंद के शिष्य सभी जातियों और पृष्ठभूमियों से थे, जो उनके समतामूलक दृष्टिकोण और सभी के लिए खुली भक्ति परंपरा को दर्शाता है। 

उनके शिष्यों ने आगे चलकर भक्ति आंदोलन को व्यापक रूप से स्थापित किया और भारतीय

 समाज में भक्ति के मार्ग को सशक्त बनाया।


संत पीपा जी महाराज


 


दोस्तों आज हम एक सुई दिखाकर उस समय के प्रसिद्द सेठ नरसी मेहता को भक्ति की ओर मोड़ने वाले महान संत के जीवन के बारे में जानते हैं।


पीपा जी संत पीपा जी, जिन्हें पीपा महाराज के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय भक्ति आंदोलन के एक महत्वपूर्ण संत और कवि थे। उनका जीवन और शिक्षाएं उनकी भक्ति परंपरा में गहरे अर्थ रखती हैं।




जीवन:




जन्म और पृष्ठभूमि: संत पीपा जी का जन्म 15वीं सदी में राजस्थान के एक राजसी परिवार में हुआ था। वे एक राजकुमार थे, लेकिन उन्होंने भक्ति मार्ग को अपनाया। और भक्ति के समय दर्जी का काम करते थे, अपने जीवन को त्यागते समय अपने शिष्य को बुलाकर कहा था कि ये सुई भी तुम रख लें, मैं इसे साथ नहीं ले सकता हूं, उन्होंने जाते हुए भी बताया कि कर्म के अलावा इंसान कुछ भी साथ नहीं ले सकता है, सब यहीं छोड़कर जाना पड़ता हैं।




गुरु: उन्होंने संत रामानंद जी से दीक्षा ली और उनके विचारों से प्रेरित होकर भक्ति में लीन हो गए।






शिक्षाएं:




भक्ति और प्रेम: संत पीपा जी ने भगवान के प्रति प्रेम और भक्ति को अपने संदेश का मुख्य आधार बनाया। उनका मानना था कि सच्ची भक्ति से ही आत्मा का उद्धार संभव है।




सामाजिक समानता: उन्होंने जात-पात के भेदभाव को नकारा और सभी मानवों को समान समझा। उनका संदेश सभी वर्गों और जातियों के लिए था।




कविता: पीपा जी ने अपनी भक्ति कविताओं के माध्यम से लोगों को जागरूक किया। उनके पद सरल, स्पष्ट, और गहरे अर्थों वाले होते हैं।






योगदान:




संत पीपा जी का भारतीय भक्ति साहित्य में एक विशेष स्थान है। उनकी रचनाएँ न केवल भक्ति की गहराई को दर्शाती हैं, बल्कि सामाजिक सुधार का भी आह्वान करती हैं।




उनके विचारों ने भक्ति आंदोलन को और भी व्यापक बनाया, और उन्होंने संत रामानंद जी के विचारों को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।






संत पीपा जी की शिक्षाएँ आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं और भक्ति मार्ग पर चलने के लिए मार्गदर्शन प्रदान करती हैं।


संत पीपा जी महाराज की भक्ति का स्वरूप और उनके जीवन के सिद्धांत उनके शिक्षाओं और रचनाओं में गहराई से प्रकट होते हैं। उनकी भक्ति मुख्यतः निम्नलिखित पहलुओं पर केंद्रित थी:




1. ईश्वर के प्रति प्रेम:




पीपा जी ने अपने जीवन में भगवान के प्रति अटूट प्रेम को दर्शाया। उन्होंने भक्ति को केवल एक आचार-व्यवहार के रूप में नहीं, बल्कि एक गहरे संबंध के रूप में देखा। उनका मानना था कि सच्ची भक्ति में ईश्वर के प्रति समर्पण और प्रेम होना चाहिए।




2. सामाजिक समानता:




संत पीपा जी ने जाति-व्यवस्था और सामाजिक भेदभाव के खिलाफ आवाज उठाई। उन्होंने सभी मानवों को समान समझा और भक्ति को सभी के लिए खुला रखा। उनकी भक्ति का संदेश था कि ईश्वर के समक्ष सभी समान हैं, और भक्ति का मार्ग सभी के लिए है।




3. योग और साधना:




पीपा जी ने ध्यान और साधना के माध्यम से आत्मिक ज्ञान की प्राप्ति पर जोर दिया। उनका ध्यान आत्मा की शुद्धि और ईश्वर के साथ एकता पर केंद्रित था। उन्होंने अपने अनुयायियों को ध्यान और साधना के द्वारा भक्ति की गहराई में उतरने की प्रेरणा दी।




4. कविता और संगीत:




संत पीपा जी ने अपनी भक्ति को व्यक्त करने के लिए कविताओं और गीतों का सहारा लिया। उनके पद सरल, स्पष्ट और गहरे अर्थों से भरे होते थे, जो आम लोगों को भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते थे। उनकी रचनाएँ आज भी भक्ति साहित्य में महत्वपूर्ण मानी जाती हैं।




5. गुरु भक्ति:




पीपा जी ने संत रामानंद जी से दीक्षा ली और उन्हें अपना गुरु माना। उन्होंने अपने गुरु की शिक्षाओं का पालन किया और उनके विचारों को अपने अनुयायियों तक पहुँचाया।


इनके प्रिय शिष्य भक्त नरसी मेहता थे, जो भी कृष्ण भक्ति में लीन थे, अपनी बेटी नानी बाई का भात भगवान से भरवाया था।




निष्कर्ष:




संत पीपा जी महाराज की भक्ति का संदेश प्रेम, समानता, और समर्पण पर आधारित था। उन्होंने अपने जीवन में भक्ति को एक गहरा अनुभव माना और इसे अपने अनुयायियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनाया। उनका योगदान भक्ति आंदोलन में महत्वपूर्ण है और उनकी शिक्षाएँ आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।


पीपा जी के जीवन से आपको 

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संत शिरोमणि रवि दास जी

 

दोस्तों आज हम बात करेंगे उन महान संत के बारे में जिन्होंने चमार (दलित) जाति में जन्म लेकर, जूते बनाने का काम करते हुए, भगवान को प्रसन्न किया और पवित्र गंगा जी को अपने घर बुलाया था।



रैदास संत रविदास जी का जन्म 15वीं सदी के आसपास हुआ था, और वे एक महान संत, भक्त, कवि और समाज सुधारक थे। उनका जन्म एक निम्नवर्गीय परिवार में हुआ था, और समाज में छुआछूत तथा जात-पात जैसी कुरीतियों के विरुद्ध उन्होंने आवाज उठाई। रविदास जी के उपदेशों और विचारों में प्रेम, समानता, और भाईचारे का संदेश था।


उनके दोहे और भक्ति रचनाएँ सिखों के पवित्र ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में भी शामिल हैं, जिससे उनके संदेश की व्यापकता का पता चलता है। रविदास जी मानते थे कि ईश्वर सभी में हैं और इंसान का सबसे बड़ा धर्म दूसरों की सेवा करना है। उन्होंने अपने उपदेशों में जातिगत भेदभाव की कड़ी आलोचना की और एक ऐसे समाज की कल्पना की जिसमें सभी लोग समान हों।


रविदास जी की शिक्षाओं का असर समय के साथ बढ़ता गया, और आज भी उन्हें एक महान संत और समाज सुधारक के रूप में सम्मान दिया जाता है।

 

वो कहते थे कि " मन संगा तो कठौती में गंगा"


इस पद में संत रविदास यह बताते हैं कि जब मन में सच्चाई और प्रेम होता है, तो साधारण चीजें भी महानता का अनुभव कराती हैं। कठौती में गंगा का संदर्भ इस बात को दर्शाता है कि अगर मन पवित्र है, तो उसका अनुभव किसी भी स्थान पर हो सकता है, और उसे स्वच्छता और दिव्यता का प्रतीक माना जा सकता है।

यह पद आज भी लोगों को प्रेरित करता है और उनकी सोच में सकारात्मकता लाने में मदद करता है।


संत रविदास जी के गुरु के बारे में ऐतिहासिक रूप से बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। फिर भी, ऐसा माना जाता है कि संत रविदास जी संत रामानंद जी के शिष्य थे। संत रामानंद जी 14वीं-15वीं सदी के एक महान संत और भक्ति आंदोलन के प्रमुख प्रवर्तकों में से एक थे। संत रामानंद जी ने सामाजिक समानता और भक्ति के विचारों का प्रचार किया, और उनके शिष्यों में संत कबीरदास जी और संत रविदास जी जैसे महान संत शामिल थे।


संत रामानंद जी का उपदेश था कि भक्ति का मार्ग सभी के लिए खुला है, चाहे उनका जाति, वर्ग, या सामाजिक स्थिति कुछ भी हो। संत रविदास जी ने अपने गुरु की इन्हीं शिक्षाओं को आत्मसात किया और समाज में फैली जाति-प्रथा और भेदभाव के खिलाफ कार्य किया।

संत रविदास जी को मीरा बाई का गुरु माना जाता है, हालांकि इस विषय में कुछ ऐतिहासिक असमानताएँ भी हैं। मीरा बाई, जो भगवान श्री कृष्ण की अनन्य भक्त थीं, ने रविदास जी की शिक्षाओं से प्रभावित होकर भक्ति मार्ग को अपनाया।


मीरा बाई और संत रविदास जी के संबंध:

कहते है कि मीरा बाई के गुरु संत रविदास जी थे, जिन्हें रैदास जी कहा जाता हैं।

गुरु-शिष्य परंपरा: मीरा बाई ने संत रविदास जी से भक्ति के गहरे विचारों और प्रेम की शिक्षाएं प्राप्त कीं। उनके संबंध गुरु-शिष्य के एक विशेष रूप से उल्लेखनीय उदाहरण हैं, जो भक्ति आंदोलन के व्यापक संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं।


भक्ति साहित्य: मीरा बाई के गीतों में भी संत रविदास जी के विचारों की छाप देखने को मिलती है, जैसे कि समाज में समानता और प्रेम का संदेश।



संत रविदास जी की भक्ति और विचारों ने मीरा बाई के भक्ति मार्ग को प्रेरित किया, जिससे उनकी भक्ति का स्वरूप और भी प्रगाढ़ हुआ। इस प्रकार, संत रविदास जी का मीरा बाई के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है।

 संत रविदास जी का वर्णन कैसा लगा कमेंट करें और मीरा बाई के बारे में पूरी जानकारी जल्द ही लेकर आ रहे हैं अन्य संतो की जानकारी देखने के लिए अगली

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संत सूरदास जी महाराज



 संत सूरदास जी महाराज दोस्तों आज हम एक ऐसे संत की बातें जानेंगे जो कि अपनी आंखों से देख भी नहीं सकते थे लेकिन, भगवान की हर एक लीला वर्णन करते हैं जो कि दिव्य दृष्टि होने का प्रमाण देती हैं।

संत सूरदास जी एक प्रसिद्ध भक्ति कवि और संत थे, जो विशेष रूप से भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन रहे। उनका जीवन और रचनाएँ भक्ति साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं।

 यहाँ संत सूरदास जी के बारे में विस्तार से जानकारी प्रस्तुत है:


जीवन:


जन्म: संत सूरदास जी का जन्म 15वीं सदी में माना जाता है, हालांकि उनके जन्म की सही तिथि और स्थान के बारे में स्पष्ट जानकारी नहीं है। उन्हें अधिकतर उत्तर प्रदेश के मथुरा या आगरा क्षेत्र में जन्मा माना जाता है।


पृष्ठभूमि: सूरदास जी एक मंझले स्तर के परिवार से थे और माना जाता है कि वे जन्मांध थे। लेकिन उनकी दृष्टिहीनता ने उनकी भक्ति और रचनात्मकता को प्रभावित नहीं किया।



भक्ति का मार्ग:


कृष्ण भक्ति: सूरदास जी ने अपने जीवन का अधिकांश समय भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में बिताया। उन्होंने कृष्ण लीला और उनकी बाल लीलाओं का विस्तार से वर्णन किया।


काव्य रचनाएँ: उनके पद और कविताएँ सरल भाषा में हैं, जो आम जनता को समझ में आने वाली हैं। उनके काव्य में भक्ति, प्रेम, और राधा-कृष्ण के बीच के दिव्य संबंध को बहुत सुंदरता से प्रस्तुत किया गया है।

संत सूरदास जी की रचनाएँ भारतीय भक्ति साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। उनकी रचनाएँ मुख्य रूप से भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति, प्रेम और उनकी लीलाओं पर आधारित हैं। यहाँ संत सूरदास जी की कुछ प्रमुख रचनाओं का विवरण प्रस्तुत है:


1. सूरसागर:


विवरण: "सूरसागर" संत सूरदास जी की सबसे प्रसिद्ध रचना है। इसमें भगवान श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं, उनकी शरारतों, और राधा के प्रति उनके प्रेम का सुंदर चित्रण किया गया है। यह रचना विभिन्न पदों और छंदों में विभाजित है, जो कृष्ण के जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाते हैं।


विशेषताएँ: सूरसागर में इनकी रचनाएँ गहरी भावनाओं और दृश्यात्मकता से भरी हुई हैं, जो पाठकों और श्रोताओं को कृष्ण की दिव्यता और उनके प्रेम के अनुभव में डुबो देती हैं।



2. सूरदास की कविताएँ और पद:


विवरण: संत सूरदास जी के कई पद हैं जो उनकी भावनाओं, विचारों और कृष्ण के प्रति भक्ति को व्यक्त करते हैं। ये पद साधारण भाषा में लिखे गए हैं, जो आम जनता के लिए समझने में सरल हैं।


विशेषताएँ: इन पदों में प्रेम, भक्ति, और समर्पण का गहरा अनुभव होता है, जो पाठकों के हृदय में गूंजता है।



3. कृष्ण लीला:


विवरण: सूरदास जी ने कृष्ण की लीलाओं को अपनी रचनाओं में बड़े ही सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया है। इनमें राधा और कृष्ण के प्रेम के विभिन्न प्रसंग, माखन चोरी की लीलाएँ, और गोपियों के साथ उनके खेल शामिल हैं।


विशेषताएँ: उनकी रचनाएँ न केवल भक्ति को व्यक्त करती हैं, बल्कि उन्हें एक काव्यात्मक और रंगीन रूप में प्रस्तुत करती हैं।


4. राधा और कृष्ण का प्रेम:


सूरदास जी ने राधा और कृष्ण के प्रेम को बहुत गहराई से व्यक्त किया। उन्होंने राधा की भावनाओं, उसके प्रेम और उसके दर्द को अत्यंत संवेदनशीलता से चित्रित किया। उनके काव्य में राधा का कृष्ण के प्रति भक्ति और समर्पण का भाव हमेशा विद्यमान रहता है।


5. प्रेम की सर्वोच्चता:


सूरदास जी का मानना था कि प्रेम ही सबसे महत्वपूर्ण है। उन्होंने अपने पदों में दिखाया है कि सच्चा प्रेम आत्मा और ईश्वर के बीच का एक गहरा संबंध है। उनका प्रेम निस्वार्थ, समर्पित, और पूर्ण था, जिसमें भक्त की आत्मा को अपने प्रभु में समर्पित कर दिया जाता है।


6. सामाजिक भक्ति:


संत सूरदास जी का कृष्ण प्रेम केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं था, बल्कि उन्होंने इसे समाज के लिए भी एक प्रेरणा के रूप में प्रस्तुत किया। उन्होंने जाति और वर्ग के भेद को नकारते हुए सभी को प्रेम और भक्ति के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया।


7. कविता और पद:


सूरदास जी की रचनाएँ, जैसे कि "सूरसागर", में कृष्ण प्रेम की गहराई को दर्शाया गया है। उनके पद सरल, लेकिन गहरे अर्थ वाले होते हैं, जो सीधे हृदय में उतरते हैं। उनकी कविताएँ आज भी भक्तों के लिए एक स्रोत के रूप में कार्य करती हैं।


निष्कर्ष:


संत सूरदास जी का कृष्ण प्रेम एक अद्भुत भावना है, जो न केवल भक्ति के माध्यम से व्यक्त होती है, बल्कि यह मानवता के प्रति एक गहरा संदेश भी देती है। उनका जीवन और रचनाएँ हमें यह सिखाती हैं कि सच्चा प्रेम, समर्पण, और भक्ति में ही सच्चा आनंद और मोक्ष निहित है। संत सूरदास जी का कृष्ण प्रेम आज भी भक्तों को प्रेरित करता है और भक्ति साहित्य का एक अमूल्य हिस्सा है।




शिक्षाएँ:


प्रेम और भक्ति: सूरदास जी ने प्रेम और भक्ति को सबसे महत्वपूर्ण माना। उन्होंने सिखाया कि सच्ची भक्ति में

श्री सूरदास जी महाराज

आत्मसमर्पण और प्रेम का होना आवश्यक है।


सामाजिक समानता: उन्होंने जाति-पात के भेदभाव का विरोध किया और अपने पदों के माध्यम से सभी को एक समान समझा।



निधन:


संत सूरदास जी का निधन 16वीं सदी में हुआ, और वे अपनी भक्ति रचनाओं के लिए हमेशा याद किए जाते हैं। उनके विचार और काव्य भारतीय भक्ति आंदोलन में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं, और उनकी रचनाएँ आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं।


संत सूरदास जी का जीवन और उनकी शिक्षाएँ हमें यह सिखाती हैं कि भक्ति, प्रेम, और मानवता का मार्ग सबसे महत्वपूर्ण है।


क्या आपको सूरदास जी के जीवन की कोई और बात है जो आप जानते हैं, तो हमे कमेंट बॉक्स मे बता सकते हैं।

संत कबीरदास जी

दोस्तों आज हम बात करेंगे कि संत कबीर दास जी कौन थे, 
उनके गुरू जी, गुरू भाई कौन थे, 
शिष्य कौन थे, उनके भगवान कौन थे , 
उनके जन्म और मृत्यु के कारण क्या थे
उनका हिंदी धर्म में कितना योगदान है और उनके कितने पंथ चल रहे हैं?
पूरी जानकारी देने की कोशिश करेंगे, चलो शुरू करते है 
कबीरदास (कबीर) 15वीं शताब्दी के एक महान भारतीय संत, कवि और समाज सुधारक थे। वे न केवल एक संत थे, बल्कि एक समाज सुधारक के रूप में भी उन्होंने हिंदू और मुस्लिम समाज में व्याप्त अंधविश्वासों, कर्मकांडों, और सांप्रदायिकता के खिलाफ आवाज उठाई। उनका जीवन और उनकी कविताएँ लोगों को ईश्वर की भक्ति, मानवता, और प्रेम का संदेश देती हैं।

कबीर जी का जन्म और मृत्यु के बारे में बहुत सारी किंवदंतियाँ हैं। ऐसा माना जाता है कि उनका जन्म एक मुस्लिम बुनकर परिवार में हुआ था, लेकिन कुछ अन्य किंवदंतियों के अनुसार, उन्हें एक हिंदू माता-पिता ने त्याग दिया था और बाद में नीरू और नीमा नाम के मुस्लिम दंपत्ति ने उनका पालन-पोषण किया।

उनकी प्रमुख रचनाओं में बीजक, साखी, शब्द और रमैनी शामिल हैं। उनके काव्य की भाषा सधुक्कड़ी कही जाती है, जिसमें हिंदी, अवधी, ब्रज, और भोजपुरी का मिश्रण है। कबीर की काव्य रचनाएँ सरल, सारगर्भित और गहरे आध्यात्मिक अर्थ लिए होती हैं। उनके दोहे और पद आज भी समाज को सत्य, प्रेम, और आध्यात्मिकता का मार्ग दिखाते हैं।

कबीरदास के अनुसार, सच्चा ईश्वर केवल आस्था और सच्चे प्रेम से प्राप्त किया जा सकता है, न कि किसी कर्मकांड या बाहरी आडंबर से। उनके दोहे हर इंसान को स्वयं के अंदर झांकने और जीवन के सच्चे अर्थ को समझने का संदेश देते हैं।

आइए जानते है कबीर जी के राम कौन थे।

कबीर जी के राम परमात्मा, निराकार, निर्गुण और सर्वव्यापी ईश्वर का प्रतीक हैं। उनके "राम" किसी विशेष रूप, मूर्ति या अवतार से बंधे हुए नहीं थे। कबीर जी ने अपने समय में प्रचलित धार्मिक परंपराओं और मूर्ति पूजा के विरुद्ध स्वर उठाते हुए यह स्पष्ट किया कि उनका राम एक निराकार, सर्वशक्तिमान और असीम शक्ति है जो हर कण में व्याप्त है।

कबीर जी के अनुसार, राम किसी विशेष धर्म, संप्रदाय, या पहचान में बंधे नहीं हैं, बल्कि वे उस अनंत सत्य का प्रतीक हैं जिसे प्रेम, भक्ति, और आत्मा के मार्ग से पाया जा सकता है। उन्होंने कहा:

> "दास कबीर जतन से ओढ़ी, ज्यों की त्यों धरि दीनी चदरिया।"

इसका अर्थ है कि संसार में रहते हुए भी ईश्वर को पाने का मार्ग सीधे आत्मज्ञान और साधना में निहित है, न कि बाहरी कर्मकांडों में।



कबीर जी का राम वही "अलख निरंजन" है, जिसे केवल अनुभूति और ध्यान के द्वारा महसूस किया जा सकता है।

आइए जानते हैं कि कबीर जी के प्रिय शिष्य कौन कौन थे।
कबीर जी के प्रिय शिष्य का नाम धनिया या धर्मदास जी बताया जाता है। धर्मदास जी का उल्लेख विशेष रूप से मिलता है, जो कबीर जी के सबसे प्रमुख शिष्य माने जाते हैं।

धर्मदास जी एक धनाढ्य व्यापारी थे, लेकिन कबीर जी के विचारों से प्रभावित होकर उन्होंने सांसारिक मोह-माया त्याग दी और कबीर जी के सानिध्य में आध्यात्मिक ज्ञान की प्राप्ति की। कबीर जी ने अपने ज्ञान को धर्मदास में स्थानांतरित किया और उन्हें सत्य, भक्ति और आत्मज्ञान का मार्ग दिखाया। धर्मदास जी के साथ उनके संवाद और शिक्षाओं का उल्लेख कई कबीरपंथी ग्रंथों में मिलता है।

इसके अलावा, कबीर जी के अन्य शिष्यों में कमाल (कबीर जी के बेटे) और कमाली (उनकी पुत्री) का भी नाम लिया जाता है। ये दोनों भी कबीर जी के विचारों का पालन करते थे और कबीर जी की शिक्षाओं को आगे बढ़ाने में सहायक रहे।

कबीर जी के शिष्यों का कार्य उनके उपदेशों को समाज में प्रसारित करना और उनके विचारों को आगे बढ़ाना था, जो आज भी कबीरपंथ के रूप में प्रचलित है।

आइए जानते हैं कि 
कबीर जी की मृत्यु कैसे हुई।

कबीर जी की मृत्यु के संबंध में कई किंवदंतियाँ हैं, और उनकी मृत्यु को लेकर एक अद्भुत कथा प्रचलित है जो उनकी आध्यात्मिक महानता को दर्शाती है। कहा जाता है कि कबीर जी ने 1518 ईस्वी में मगहर, उत्तर प्रदेश में शरीर का त्याग किया। उनके अंतिम समय में वाराणसी और मगहर दोनों स्थानों का उल्लेख मिलता है। उस समय यह मान्यता थी कि जो व्यक्ति काशी (वाराणसी) में मरता है, उसे मोक्ष प्राप्त होता है, जबकि मगहर में मरने पर उसे पुनर्जन्म में नीच योनि में जन्म लेना पड़ता है। कबीर जी ने इस अंधविश्वास को तोड़ने के लिए काशी छोड़कर मगहर में देह त्याग करने का निर्णय लिया, यह सिद्ध करने के लिए कि मोक्ष स्थान से नहीं बल्कि सच्ची भक्ति और आत्मज्ञान से प्राप्त होता है।

कबीर जी की मृत्यु के बाद उनके शरीर के अंतिम संस्कार को लेकर विवाद हुआ। उनके अनुयायी हिंदू और मुस्लिम, दोनों उनके शरीर को अपने-अपने तरीके से संस्कार करना चाहते थे। किंवदंती के अनुसार, जब उनके शरीर से चादर हटाई गई, तो उनके स्थान पर केवल फूल मिले। इसके बाद, हिंदुओं ने उन फूलों को जला कर और मुसलमानों ने उन्हें दफना कर अपनी-अपनी श्रद्धा अर्पित की।

इस घटना से यह संदेश मिलता है कि कबीर जी संप्रदाय, जाति, और धर्म के पार जाकर मानवता का संदेश देना चाहते थे, और उनकी शिक्षाएँ दोनों समुदायों के लिए एक अनमोल धरोहर बनीं।

आइए जानते हैं कि कबीरजी के नाम पंथ कितने हैं 
कबीर जी की शिक्षाओं और विचारों को मानने वाले विभिन्न समूहों ने उनके संदेश को आगे बढ़ाया, जिससे उनके कई पंथ या संप्रदाय स्थापित हुए। मुख्य रूप से कबीर जी के दो प्रमुख पंथ माने जाते हैं:

1. कबीरपंथ: यह सबसे बड़ा और प्रसिद्ध पंथ है जो कबीर जी की शिक्षाओं का पालन करता है। कबीरपंथी उनके विचारों को अपने जीवन में अपनाते हैं और कबीर जी के साक्षात अनुभवों, भक्ति, सत्य, और प्रेम के मार्ग पर चलते हैं। कबीरपंथी मुख्य रूप से उनकी रचनाओं जैसे साखी, रमैनी और बीजक को मानते हैं। कबीरपंथ का मुख्य केंद्र छत्तीसगढ़ में है, लेकिन यह पंथ भारत के अन्य हिस्सों में भी फैला हुआ है।


2. धर्मदासी पंथ: कबीर जी के प्रमुख शिष्य धर्मदास जी द्वारा स्थापित इस पंथ को धर्मदासी पंथ के नाम से जाना जाता है। धर्मदासी पंथ में कबीर जी के विचारों का प्रचार-प्रसार धर्मदास जी की शिक्षाओं के अनुसार किया जाता है। इस पंथ में भी कबीर जी की शिक्षाओं का पालन किया जाता है, लेकिन इसमें कुछ अन्य ग्रंथ और अनुशासन भी शामिल हैं, जिन्हें धर्मदास जी ने कबीर जी के संदेशों के साथ आगे बढ़ाया।



इसके अलावा, कबीर जी की शिक्षाओं का प्रभाव अन्य संतों और परंपराओं पर भी पड़ा, जैसे कि, गरीबदास पंथ, दादूपंथ, सतनाम पंथ, और रविदास पंथ, जो कबीर जी के सिद्धांतों से प्रेरित हैं। हालाँकि ये पंथ सीधे तौर पर कबीर जी से नहीं जुड़े हैं, लेकिन उनके अनुयायी कबीर जी के विचारों और उनकी शिक्षाओं का आदर करते हैं और उन्हें अपने आध्यात्मिक मार्ग का हिस्सा मानते हैं।

इस प्रकार, कबीर जी के पंथों और उनके प्रभाव से कई संप्रदाय विकसित हुए, जो आज भी कबीर जी के आदर्शों का पालन कर रहे हैं और उनके संदेशों को आगे बढ़ा रहे हैं।

तो दोस्तों कैसी लगी हमारी जानकारी, कमेंट करते जाइए और हिंदी धर्म को फोलो करना चाहिए।
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शुक्रवार, नवंबर 01, 2024

कैसे घर बैठे कमाई करें How To Make Money Online For FREE Home Side Income

दोस्तों आज हम बात करेंगे एक भरोसेमंद विश्वासपात्र app के बारे में,
हमने बहुत सारे एफिलिएट प्रोग्राम और fake वेबसाइट देखने के बाद एक अच्छी वेबसाइट खोजी है 
जिसका नाम है वॉइस सेंस ysense और इस वेबसाइट से किस तरह एक दूसरे को आगे से आगे जोड़कर डॉलर में पैसा कमा सकते हैं 
और उसमें सर्वे भी भर सकते हैं टास्क ऑफर वगैरा आते रहते हैं लेकिन
 मुझे सबसे अच्छा रेफरल प्रोग्राम लगा इसलिए मैं आपको इस बारे में पूरी जानकारी देने जा रहा हूं
दोस्तों Ysense की सबसे ख़ास बात यह है कि
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दोस्तों आज हमने आपको बताया कि ysense app क्या है और मुझे उम्मीद है कि आपको पता चल गया होगा कि वाईसेंस से पैसे कैसे कमाए जाते हैं? अगर आपको यह जानकारी अच्छी लगी हो तो इसे अपने दोस्तों के साथ शेयर करें, इससे जुड़ा कोई सवाल है तो आप कमेंट बॉक्स में सवाल पूछ सकते हैं, हम जवाब देने की कोशिश करेंगे। .

गुरुवार, अक्टूबर 31, 2024

लोगों की बातें ज्यादा नहीं सुननी चाहिए । Logon ki bate jyada nhi chunani chahiye

लोगों की बातें ज्यादा नहीं सुननी चाहिए 

 दोस्तों आप कर्म किए जाओ,

 आप किसी और के कहने में ना आए क्योंकि,

 लोगों की आदत है कहना 

अच्छे को बुरा कहते हैं 

और बुरा करते हैं तो भी बुरा कहते हैं 

अच्छा करते हैं तो भी अच्छा ही कह देते हैं

 इस तरह से उनका कहने से कोई हमारा लेना देना नहीं है 

इसलिए जो काम अपने खुद के लिए कर रहे हो या करने की ठानी है

 उसे आप करते रहिए क्योंकि वह काम आप खुद के लिए कर रहे हो

 किसी और के लिए नहीं कर रहे हो यदि आप किसी और के लिए कर रहे हो

 और वाह वाही के लिए कर रहे हो तो फिर आपको उनकी बातों को सुनना चाहिए

 लेकिन आप जो काम अपने खुद के लिए कर रहे हैं

 उस काम को आपको करना ही चाहिए

 लोगों के बहकावे में आते गए तो ,

वह आपका काम चौपड़ होने में समय नहीं लगेगा,


इसी विषय को लेकर आज मैं आपके सामने एक अच्छी कहानी लेकर आया हूं

 जिसे आप पढ़ कर यह जान पाओगे कि

 लोग कहां से कहां तक पहुंचा देते हैं तो पढ़िए।



दोस्तों एक समय की बात है 

एक गांव में एक बाप और एक बेटा ,

अपने एक गधे को लेकर खेत से घर की ओर आ रहे थे 

रास्ते में कोई मिला उसने देखते ही बोला कि , 

आपके पास गधा है तो बेटे को गधे पर बिठा दो

 यह चल नहीं पा रहा है बाप ने उसकी बात सुनकर बेटे को गधे पर बैठा दिया



 और खुद आगे आगे चलने लगा कुछ ही दूर पर दूसरा आदमी मिला

 जिसने देखते ही बोला बच्चा तो छोटा है आप बुड्ढे हो तो ,

आप गधे पर बैठ जाते बच्चा पैदल चल लेता 

उसकी बात सुनकर बेटा नीचे उतर गया 


और बाप को गधे पर बैठा दिया कुछ ही दूर चले थे कि ,

एक और आदमी मिल गया जिसने कहा कि बाप तो गधे पर चढ़ा है

 और बेटे को पैदल चला रहा है अब बाप ने बेटे को भी गधे पर बैठा दिया

 और चलने लगे थोड़ा आगे चलते ही फिर कोई मिल गया

 उसने देखते ही बोला कितने निर्दय आदमी हो,

 गधे की हालत खराब हो रही है फिर भी बेसहारा दोनों का बोझ का उठाकर चल रहा है।

उस आदमी की बात सुनकर दोनों गधे से नीचे उतरे 

और गधे को उल्टा बांध कर अपने कंधों पर लेकर चलने लगे तब तक गांव में आ गए 



गांव वाले देखकर हंसने लगे और

 कहने लगे बाप बेटा दोनों कितने बेवकूफ है जिस गधे पर चढ़ कर सफर करना चाहिए उसी 

गधे को कंधे पर उठाकर लेकर आ रहे हैं 

तो दोस्तों अब इस कहानी को पढ़ने के बाद आपके समझ में आ गया होगा कि

 लोग कुछ भी बोल सकते हैं लेकिन

 उनकी बातों पर ध्यान नहीं देना चाहिए यदि

 उनकी बातों पर ध्यान देते हैं तो फिर 

उसी बाप बेटे के जैसी स्थिति हमारी भी हो जाती है 

इसलिए यह सीखने से शिक्षा मिलती है कि

 हमें किसी और की परवाह ना करते हुए 

हमें हमारे कर्म करते रहना चाहिए 

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धन्यवाद 

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संत रामानंद जी महाराज के शिष्य

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